2122 1122 22
ज़ोर तूफ़ान का चल जाने दो
मुझको लहरों पे निकल जाने दो
है मुख़ालिफ़ कि हवाओं का रूख
ठहरो कुछ देर सँभल जाने दो
फिर न दिल में कोई रह जाये मलाल
इक दफा दिल को मचल जाने दो
मोजज़ा हो न हो उम्मीदें हों मोजज़ा =चमत्कार
जी किसी तरह बहल जाने दो
आग आखिर ये बुझेगी तो ज़रूर
डर इसी आग में जल जाने दो
बूंद जायेगी कहाँ तक देखूँ
गिर के पत्थर पे उछल जाने दो
रात गहरी हुई जाती है अब
बस करो यार ग़ज़ल जाने दो
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
हार्दिक धन्यवाद भाईजी.. .
दिखने में छोटी सी भूल दरअस्ल बहुत बड़ी गलती है मेरा ध्यान तो गया नहीं, आपसे पहले किसी ने ध्यान दिलाया नहीं, भर्म तो नही लेकिन भ्रम का वज्न मैंने 21 ले लिया है इसे कहते हैं अतिआत्मविश्वास :-((
आदरणीय सौरभ सर आपका आभार सराहना के लिये भी और इस्लाह के लिये भी l मिसरा बेबह्र है ग़लती मेरी है मैं सुधार लेता हूँ।
बूंद जायेगी कहाँ तक देखूँ
गिर के पत्थर पे उछल जाने दो... . बहुत खूब !
एक अच्छी ग़ज़ल के लिए दिल से दाद कह रहे हैं हम. लेकिन भाई शिज्जूजी, भ्रम को भर्म कैसे पढ़ें ?
आपके मतले का उला ही मुझे भ्रम में डाल गया है कि आपने इसकी तक्तीह कैसे की है.
शुभ-शुभ
आदरणीय सत्यनारायण जी आपका हार्दिक आभार
सुन्दर एवं शानदार गजल हेतु ढेरों बधाई स्वीकार करें आदरणीय शिज्जू जी
आदरणीय गिरिराज सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय रमेश भाई आपका हार्दिक आभार
आदरणीय जितेन्द्र भाई आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय गजेन्द्र जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय वीनस जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
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