अपनी कविताओं में एक नायक रचा मैंने !
समूह गीत की मुख्य पंक्ति सा उबाऊ था उसका बचपन ,
जो बार-बार गाई गई हो असमान,असंतुलित स्वरों में एक साथ !
तब मैंने बिना काँटों वाले फूल रोपे उसके ह्रदय में ,
और वो खुद सीख गया कि गंध को सींचते कैसे हैं !
उसकी आँखों को स्वप्न मिले , पैरों को स्वतंत्रता मिली !
लेकिन उसने यात्रा समझा अपने पलायन को !
उसे भ्रम था -
कि उसकी अलौकिक प्यास किसी आकाशीय स्त्रोत को प्राप्त हुई है !
हालाँकि उसे ज्ञात था पर स्वीकार न हुआ -
कि पर्वतों के व्यभिचार का परिणाम होती हैं कुछ नदियाँ !
वो रहस्यमय था मेरे प्रेमिल ह्रदय से भी -
और अंततः मेरी निराश पीड़ा से भी कठोर हुआ !
मृत समझे जाने की हद तक सहनशील बना -
-अतीत के सामुद्रिक आलिंगनों के प्रति , चुम्बनों के प्रति !
आँखों में छाया देह का धुंधलका बह गया आंसुओं में ,
तब दृश्य रणभूमि का था !
पराजित बेटों के शव जलाने गए बूढ़े नहीं लौटे शमशान से !
दूध से तनी छातियों पर कवच पहने युवतियाँ -
दुधमुहें बच्चों को पीठ पर बाँध जलते चूल्हे में पानी डाल गईं !
जब वो प्रेम में था , उसकी सभ्यता हार गई अपना युद्ध !
अब भींच ली गईं हैं आंसू बहाती उँगलियाँ !
उसके माथे पर उभरी लकीरें क्रोधित नहीं है, आसक्त भी नहीं -
किसी जवान स्त्री की गुदाज जांघों के प्रति !
क्योकि ऐसे में आक्रोश पनपता है , उत्तेजना नहीं !
अपनी रातरानी की नुची पंखुडियों का दर्द बटोर -
वो जीवित है जला दिए गए बाग में भी !
दिनों को जोतता हुआ , रातों को सींचता हुआ !
ताकि सूखकर काले हो चुके खून सने खेत गवाही दें -
कि मद्धम नहीं पड़ सकती बिखरे हुए रक्त की चमक !
सुनहरे दाने उगेंगे एक दिन !
और अंतिम दृश्य उसके हिस्से का -
कटान पर किया जाने वाला परियों का नृत्य होगा !
क्योकि -
उसे स्वीकार नहीं एक अपूर्ण भूमिका सम्पूर्णता के नाटक में !
नेपथ्य का नेतृत्व नकार दिया गया है !
अब मैं उसका भाग्य नहीं , उसके कर्म लिखता हूँ !
.
.
.
अरुण श्री !
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
सराहने के लिए आपको धन्यवाद रमेश कुमार चौहान जी !
बहुत धन्यवाद Dr Ashutosh Mishra जी !
बहुत-बहुत धन्यवाद इस कविता को Featured करने के लिए ! सादर !
वो रहस्यमय था मेरे प्रेमिल ह्रदय से भी -
और अंततः मेरी निराश पीड़ा से भी कठोर हुआ !
मृत समझे जाने की हद तक सहनशील बना -
-अतीत के सामुद्रिक आलिंगनों के प्रति , चुम्बनों के प्रति !
आँखों में छाया देह का धुंधलका बह गया आंसुओं में ,
तब दृश्य रणभूमि का था !
पराजित बेटों के शव जलाने गए बूढ़े नहीं लौटे शमशान से !
दूध से तनी छातियों पर कवच पहने युवतियाँ -
दुधमुहें बच्चों को पीठ पर बाँध जलते चूल्हे में पानी डाल गईं !----आपकी रचनाएँ अद्दभुत बिम्बों के सहारे बहुत कुछ कह जाती हैं एक संघर्षमय जीवन को कितनी संजीदगी से बांधा है शब्दों में, जो आपके विवेक और कलम की कुशलता का परिचायक है ,बहुत- बहुत बधाई आपको.
अरुण जी, आपकी कविता एक सुखद आश्चर्य से भर देती हैं। भाव आपके हृदय की गहराइयों से निकले हैं और आपकी कलम में विद्यमान सुदृढ़ शिल्प ने उन्हें आकाश की ऊँचाई प्रदान की है। बहुत अच्छी कविता है। बारंबार बधाई स्वीकार करें।
सुंदर भाव प्रदर्शन । इस प्रस्तुति पर बधाई
सुंदर रचना.मेरी तरफ से हार्दिक बधाई सादर
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