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ग़ज़ल - बहाने पे बहाना हो रहा है

१२२२    १२२२     १२२

जमाना अब दीवाना हो रहा है

खुदी से ही बेगाना हो रहा है

 

जला डाला था जिसने घर हमारा

वही अब आशियाना हो रहा है

 

जो हमने पूछ ली उनसे हकीकत

बहाने पे बहाना हो रहा है

 

हमारे पास इक गैरत बची थी

उसी पर अब निशाना हो रहा है

 

हमें मजहब में अब वो बांट देगा

सुनो वो कातिलाना हो रहा है

 

मुहब्बत हम भी कर लेते मगर अब

सनम भी शातिराना हो रहा है

 

कहीं पर हो रहा है खेल खूनी

कहीं पर गीत गाना हो रहा है

 

अमित कुमार दुबे मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by अमित वागर्थ on May 7, 2014 at 11:10pm

हार्दिक आभार भाई शिज्जु जी


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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 7, 2014 at 9:03pm

हार्दिक बधाई भाई अमित जी

Comment by अमित वागर्थ on May 7, 2014 at 7:02pm

आपका हार्दिक आभार आ0 coontee mukerji जी

Comment by अमित वागर्थ on May 7, 2014 at 7:01pm

बहुत बहुत शुक्रिया  आ0 सविता मिश्रा जी

Comment by अमित वागर्थ on May 7, 2014 at 6:58pm

धन्यवाद आदरणीय श्याम नारायण जी

Comment by अमित वागर्थ on May 7, 2014 at 6:57pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय भुवन निस्तेज जी

Comment by coontee mukerji on May 7, 2014 at 5:56pm

मुहब्बत हम भी कर लेते मगर अब

सनम भी शातिराना हो रहा है.....बहुत खूब

Comment by savitamishra on May 7, 2014 at 4:51pm

बहुत खुबसूरत

Comment by Shyam Narain Verma on May 7, 2014 at 3:07pm
बहुत सुन्दर गजल।  ढेरों दाद कुबूल करें। सादर
Comment by भुवन निस्तेज on May 7, 2014 at 1:31pm

वाह! यह अश'आर क्या कहने ...

हमें मजहब में अब वो बांट देगा

सुनो वो कातिलाना हो रहा है

 

मुहब्बत हम भी कर लेते मगर अब

सनम भी शातिराना हो रहा है

बधाई हो आदरणीय ...

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