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हमारी बात उन्हें इतनी नागवार लगी
गुलों की बात छिड़ी और उनको खार लगी
बहुत संभाल के हमने रखे थे पाँव मगर
जहां थे जख्म वहीं चोट बार-बार लगी
कदम कदम पे हिदायत मिली सफर में हमें
कदम कदम पे हमें ज़िंदगी उधार लगी
नहीं थी कद्र कभी मेरी हसरतों की उसे
ये और बात कि अब वो भी बेकरार लगी
मदद का हाथ नहीं एक भी उठा था मगर
अजीब दौर कि बस भीड़ बेशुमार लगी
संजू शब्दिता मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आप लाजवाब लिखती हैं संजू जी आपकी गजल मैं कभी miss नहीं करना चाहती
आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी आपका हार्दिक धन्यवाद
"'ये और बात थी कि वो भी बेकरार लगी --यह तो कोई पुरुष लिख सकता है i आपके जेहन में यह ख्याल कैसे आया"'////
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी शायद आपने ध्यान नहीं दिया कि प्रस्तुत ग़ज़ल में रदीफ़ "'लगी "'है ,जिसे किसी भी सूरत में बदला नहीं जा सकता । इसी आधार पर रदीफ़ "'लगी " को लिंगानुसार भी "'लगा "'नहीं किया जा सकता। यह तो हुई इस ग़ज़ल से संबन्धित बात ..जरूरी बात यह कि ग़ज़ल लिखने के लिए हमें किसी की भी तरह सोचना पड़ सकता है ..स्त्री, पुरुष, पशु ,पक्षी वगैरह वगैरह...इसीलिए मेरे जेहन में ये खयाल आया । बहरहाल आपका बहुत बहुत शुक्रिया .
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय gumnaam pithoragarhi जी
आदरणीय Sushil Sarna जी आपको ग़ज़ल पसंद आई इसके लिए आपका आभार व्यक्त करती हूँ ।
आदरनिया coontee जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय Shyam Narain Verma जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय narendrasinh chauhan जी
शिज्जू जी अभी तो बस कोशिस जारी है,फिलहाल आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय गिरिराज सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया
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