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ज़हनो-दिल ख़ामोश है औ’ हर नज़र दीवार पर

दोस्तों चुनाव के दौरान की ग़ज़ल है, विलम्ब से पोस्ट कर रहा हूँ

ज़हनो-दिल ख़ामोश है  औ’ हर नज़र दीवार पर 
क्या इलेक्शन चीज़ है उतरा नगर दीवार पर

या कोई हो आला लीडर या गली का शेर खां 
हर किसी  दिख रही अपनी लहर दीवार पर

इस  इलेक्शन में खड़ा है ऐसा भी उम्मीदवार
जिसने लटकाया कई सर काटकर दीवार पर

भोंकने लगता है 'शेरू' क्या पता किस बात पर
देखते ही मोहतरम का पोस्टर दीवार पर

बस चुनावी रंग में रंगे हैं ये नक्शो-निगार
और सारे रंग लगते बेअसर दीवार पर

"मौलिक व अप्रकाशित"

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 3, 2014 at 12:15pm

ग़ज़ल में कई जगह भाषा-व्याकरण दोष उभर आया है. एक बारी फिर से देख लें.

सादर

Comment by बृजेश नीरज on May 28, 2014 at 9:54pm

अच्छी ग़ज़ल है. आपको बधाई!

//हर किसी  दिख रही अपनी लहर दीवार पर//... इस मिसरे में तो व्याकरण का दोष प्रतीत हो रहा है! आपका मार्गदर्शन मेरे लिए सहायक होगा.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 28, 2014 at 5:41pm

आदरनीय सुशील भाई , इलेक्शन का खूब रंग बिखेरा है आपने , गज़ल के लिये बधाइयाँ ॥

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 27, 2014 at 11:22am

सारे रंग लगते बेअसर दीवार पर  i सुन्दर i बधाई i

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 26, 2014 at 4:23pm

हर किसी दिख रही अपनी लहर दीवार पर
यहाँ बहर टूट रही सी है ऐसा मुझे लगे कृपया देख लेवें
लटकाया सर की जगह शायद लटकाए सर होना चाहिए ..ये सिर्फ मेरी व्यक्तिगत राइ है अन्यथा न लीजियेगा सादर

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 26, 2014 at 3:13pm

इस इलेक्शन में खड़ा है ऐसा भी उम्मीदवार
जिसने लटकाया कई सर काटकर दीवार पर
भोंकने लगता है 'शेरू' क्या पता किस बात पर
देखते ही मोहतरम का पोस्टर दीवार पर
न जाने कब ये सब बदल पायेगा क्या कोई मसीहा आएगा
भ्रमर ५

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