गालों पर बोसा दे देकर मुझको रोज़ जगाती है
छप्पर के टूटे कोने से याद की रौशनी आती है
दालानों पर आकर, मेरे दिन निकले तक सोने पर
कोयल, मैना, मुर्ग़ी, बिल्ली मिलकर शोर मचाती है
सबका अपना काम बंटा है आँगन से दालानों तक
गेंहूँ पर बैठी चिड़ियों को दादी मार बगाती है
यूं तो है नादान अभी, पर है पहचान महब्बत की
जितना प्यार करो बछिया को उतनी पूँछ उठती है
लाख छिड़कता हूँ दाने और उनपर जाल बिछाता हूँ
लेकिन घर कोई चुहिया मुझको हाथ न आती है
शाम सवेरे छोटे-छोटे बच्चों के स्वर से निकली
रामायण की चौपाई मेरे दिल को छू जाती है
मेरी रोटी और पकाए उसकी साग कहीं सीझे
एक ही मचिश की तीली सब चूल्हों को सुलगाती है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
अच्छा प्रयास है! टंकण की त्रुटियों से बचना बहुत जरूरी है.
इस अभिव्यक्ति पर आपको हार्दिक बधाई!
जितना प्यार करो बछिया को उतनी पूँछ उठती है...उठती शायद टंकण की बजह से हो गया है उठाती होना चाहिए ..इस ग़ज़ल पर मरती तरफ से हार्दिक शुभकामनाएं सादर
शाम सवेरे छोटे-छोटे बच्चों के स्वर से निकली
रामायण की चौपाई मेरे दिल को छू जाती है
मेरी रोटी और पकाए उसकी साग कहीं सीझे
एक ही मचिश की तीली सब चूल्हों को सुलगाती है
सुन्दर भाव ...अच्छी रचना ....गांव का दृश्य झलका प्यारा प्यारा
भ्रमर ५
आदरणीय सुशील भाई , बहुत सुन्दर चित्र खींचा है भाई , आपको बधाई ॥
नीरज मिश्र जी ने सही कहा एक महक है आपकी कविता में
सुन्दर प्रस्तुति, वर्तनी की गलतियां सुधार लें तो बेहतर..
बहुत सुन्दर दृश्य प्रस्तुत किया आप ने जैसे हम अपने गाँव में पहुँच गये हों ... बहुत बहुत बधाई
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई |
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