धर्म-कर्म दुनिया में
प्राणवायु भरना
कब सीखा पीपल ने
भेदभाव करना?
फल हों रसदार या
सुगंधित हों फूल
आम साथ हों
या फिर जंगली बबूल
कब सीखा
चिन्ता के
पतझर में झरना
कीट, विहग, जीव-जन्तु
देशी-परदेशी
बुद्ध, विष्णु, भूत, प्रेत
देव या मवेशी
जाने ये
दुनिया में
सबके दुख हरना
जितना ऊँचा है ये
उतना विस्तार
दुनिया के बोधि वृक्ष
इसका परिवार
कालजयी
क्या जाने
मौसम से डरना
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
तहे-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ Saurabh जी स्नेह बना रहे
बहुत बहुत शुक्रिया Vindu जी
बहुत बहुत धन्यवाद गिरिराज जी
पीपलत्व हमसभी का आचरण में आये... आमीन !!
एक सहज, प्रवहमान और सार्थक गीत के लिए हार्दिक बधाइयाँ.
सादर
रचना का कथ्य खूब भाया आदरणीय धर्मेन्द्र जी।
प्रयास जारी रखें..हार्दिक शुभकामनायें।
सादर
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , सच है प्रकृति सबके प्रति सम भाव रखती है , इसीलिये प्रकृति को माँ के रूप मे भी देखते हैं । सुन्दर गीत के लिये आप्को हार्दिक बधाइयाँ ।
बहुत बहुत धन्यवाद rajesh kumari जी
बहुत बहुत शुक्रिया coontee mukerji जी
बहुत बहुत धन्यवाद Meena Pathak जी
धर्म-कर्म दुनिया में
प्राणवायु भरना
कब सीखा पीपल ने
भेदभाव करना?---बहुत सही बात कही है ,प्रकृति कभी कोई भेद भाव नहीं करती
बहुत सुन्दर नवगीत लिखा बधाई आपको
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