जिसका वो अंश है ……
कौन है ज़िंदा ?
वो मैं,जो सांसें लेता है
जिसका प्रतिबिम्ब दर्पण में नज़र आता है
जो झूठे दम्भ के आवरण में जीवन जीता है
या
वो मैं जो अदृश्य हो कर भी सबमें समाया है
न जिसकी कोई काया है
न जिसका कोई साया है
कितना विचित्र विधि का विधान है
एक मैं, नश्वरता से नेह करता है
एक मैं, अमरत्व के लिए मरता है
मैं के परिधान में जो मैं ज़िंदा है
वही प्रभु का सच्चा परिंदा है
दुनियावी मैं को दुनियावी इंसान ले जाते हैं
भस्म होने तक उसे शमशान में जलाते हैं
उसकी भस्म गंगा में बहाते हैं
चार आंसूओं से रिश्तों को निभाते हैं
एक वज़ूद को इतिहास बनाते हैं
एक मैं को चार बन्दे नहीं, स्वयं प्रभु ले जाते हैं
उसे भस्म नहीं, बल्कि अमर बनाते हैं
उसे पुनर्जन्म का आवरण पहनाते हैं
मैं और मैं का ये चक्र यूँ ही चलता रहता है
एक सदा भस्म होता है एक अमरत्व पाता है
मगर जीव इस भेद को कहाँ समझ पाता है
बस साँसों के आने-जाने को ही वो जीवन समझता है
जिस दिन वो मैं और मैं का भेद पा जाएगा
सच, वो जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति पा जाएगा
फिर जिसका वो अंश है उसमें समा जाएगा
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीया कुंती मुख़र्जी रचना पर आपकी सराहना का हार्दिक आभार। कुंती जी मैं और मैं के मध्य भेद के लिए या आवश्यक था इसलिए इसका प्रयोग किया गया वैसे मैंने आपके सुझाव को ध्यान में रखते हुए आंशिक संशोधन अवशय किया है आशा है आपको पसंद आएगा। आपके बहुमुल्य सुझाव और प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
आत्मा में प्रभु का अंश "मै" जिसका पुनर्जन्म होता है और एक "मै" जिसे चार बन्दे ले जाते है जो सदा के लिए भस्म हो जाता है,
में भेद की व्याख्या करती भावपूर्ण रचना के लिए बधाई श्री सुशिल सरना जी
अहम् ब्रह्मास्मि और 'जब मै था तब हरि नहीं ' का सुन्दर विभेद किया है i आप में चिंतन की अच्छी द्रष्टि है i
बहुत सुंदर दर्शनिक रचना है.....लेकिन पढ़ते वक्त...(या वो मैं) बहुत खटक रहा है....अगर आप इस लाइन को दुबारा ठीक कर लेंगे तो रचना का सौंदर्य बढ़ जाएगा.....सादर.
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