[1]
पूजनीय हैं माँ-पिता, सदा करो सम्मान ।
जीवन दाता है यही, खुदा यही भगवान ॥
खुदा यही भगवान, धर्म निज खूब निभाते ।
संतानों को पाल - पोस कर नेह लुटाते ॥
मन से दो तुम मान सदा ये बंदनीय है ।
करें अहेतुक प्यार हमारे पूजनीय हैं ॥
[2]
माया छलना मोहती , धारे रूप अनेक ।
केवल माला फेरता, कैसे हो तू नेक ॥
कैसे हो तू नेक, फंसाए तुझको माया ।
जाल बिछा हर ओर उलझती जाती काया ॥
मानो मेरी बात, न अब फँस पाये काया ।
भज लो प्रभु का नाम, भूल ये सारी माया ॥
[3]
नारी, माँ, दारा, सुता, धारे रूप अनेक ।
बंधन बांधे नेह का धीरज धर्म विवेक ।।
धीरज धर्म विवेक सभी संबंध निभाती ।
खुशियाँ भर कर गेह निरंतर ही मुसकाती ॥
छलका गागर नेह सभी पर ही बलिहारी ।
कैसे करूँ बखान असीमित अनुपम नारी ॥
[4]
लेखन व्यवसायी हुआ भाषा भूले लोग ।
बेगानी हिन्दी हुई लगा इंगलिशी रोग ॥
लगा इंग्लिशी रोग सभी गिटपिट बतियाते ।
निज भाषा को छोड़ आंग्ल भाषा अपनाते ॥
लिखते ऊल जलूल नहीं कोई संवेदन ।
भूले सब साहित्य बना व्यवसायी लेखन ॥
[5]
सास ससुर अब रिपु लगें नहीं सुहाती नन्द ।
जेठ जिठानी से ठनी , कहाँ मिले आनंद ॥
कहाँ मिले आनन्द लग रहे देवर दुश्मन ।
देवर-पत्नी खूब दिखाती अपने ठनगन ॥
नहीं किसी से प्रेम आस पीहर से ही सब ।
बस प्रियतम को छोड़, न भाते सास ससुर अब॥
[6]
होली के हुड़दंग मे प्रिय मत जाना भूल ।
मिलना सबसे प्रेम से चुभे न कोई शूल ॥
चुभे न कोई शूल , खिलाओ पुष्प प्यार के ।
सबसे मिलिये खूब प्यार के रँग निखार के ॥
मानो मेरी बात , करो तुम खूब ठिठोली ।
जी भर खेलो रँग , बने मतवाली होली ॥
[7]
फागुन आयो री सखी , मनुवा भयो मयूर ।
अमवा पर बौरें खिलीं , कोकिल करती कूक ॥
कोयल करती कूक , मधुर सुर मे है गाती ।
छेड़ नेह का राग , सभी का मन बहलाती ॥
सुनकर उसकी तान , सभी देते है काकुन ।
रंगो का त्योहार , सदा ही लाता है फागुन ॥
[8]
भीम नाद सी गूंज हो , अनुपम यह उद्घोष ।
भरे क्रांति मे रंग , फिर भगत सिंह सा जोश ॥
भगत सिंह सा जोश , सुभाष सी ललकार हो ।
वीरांगना हर नार , लक्ष्मी सी शानदार हो ॥
भगत सिंह से काम, सोच अपनी आजाद सी ।
करे भारती नाद गूंज हो भीम नाद सी ।।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
वाह जी वाह ..... बहुत सुन्दर कुंडलियाँ .. बधाई आप को
बहुत सुंदर कुण्डलियाँ है......आपको हार्दिक बधाई है....सादर
सारी ! अनुपमा जी कुछ अधूरा रह गया फिर से देखे-
नहीं किसी का प्रेम है पीहर से सब आस i
बस प्रियतम को छोड़ अब भाते ससुर न सास ii सादर
अनुपमा जी '
बहुत अच्छी कुण्डलिया रची आपने i एक गुस्ताखी मै करता हूँ i आप क्षमा करियेगा i
बस प्रियतम को छोड़, अब भाते ससुर न सास
सादर
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