2122 2122 2
दिन टपक के सूख जाता है
हाथ में कुछ भी न आता है
मै पराया , वो पराया है
कौन किसमें अब समाता है ?
ग़म हक़ीक़ी भी मजाज़ी भी
देख किसको कौन भाता है
दर्द मै अपना दबा भी लूँ
ग़म तुम्हारा पर रुलाता है
खार चुभते जो रिसा था ख़ूँ
रास्ता वो अब दिखाता है
सूर्य तो ख़ुद जल रहा यारों
वो किसी को कब जलाता है
ख़्वाबों में आ आ के शिद्दत से
गाँव तो अब भी बुलाता है
तू न अब मायूसियाँ ही देख
देख कोई मुस्कुराता है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
एक बार फिर से अच्छी ग़ज़ल, आदरणीय !
दाद दाद दाद ! ..... :-)))
आदरणीय विजय मिश्र भाई , आपकी सराहना मे रे लिये ईनाम के समान है , आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय आशुतोष भाई , सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका शुक्रिया ॥
आदरणीय नीलेश भाई , आपका शुक्रिया ॥
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय जितेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय सुशील भाई , ज़र्रा नवाज़ी का बहुत शुक्रिया ॥
आदरणीया कुंती जी , आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीया राजेश जी , मुक्त कण्ठ से गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीया मीना जी , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥
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