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दो हाथ की दुनियां

लकीरें  गहरी हो गयी है ,

बुधुआ मांझी के माथे की .

स्याह तल पर उभर आये कई खारे झील .

सिमट गया  है आकाश का सारा विस्तार

उसके आस पास. 

दुनियां हो गयी है दो हाथ की.

 

मिट्टी का घर, छोटे बच्चे, बैल, बकरियां और

खेत का छोटा सा टुकड़ा

इससे आगे है एक मोटी दीवार

बिना खेत और घर के कैसे जियेगा?

इससे जुदा क्या दुनियां हो सकती है ?

  

उनकी जमीन के नीचे ही क्यों निकलता है कोयला ?

पर  वह  किस पर करे क्रोध

अपने भाग्य पर , पूर्वजों पर , सिंग बोंगा पर ?

उसके आगे है घुप्प अँधेरा

वह धंसता जा रहा है जमीन के अन्दर

उसकी देह परिवर्तित हो रही काले पत्थर में

 

इस  कोयले में शामिल है उसके पूर्वजों की अस्थियाँ.

उनके पूर्वज भी उन्हीं की तरह काले थे.

क्या यूँ ही उजाड़े जाते लोग

अगर कोयला सफ़ेद होता?

उसकी आँखे दहक उठी है अंगारे की तरह

आग लग गयी है कोयले की खदान में..

 

..नीरज कुमार नीर ..

मौलिक एवं अप्रकाशित ..

 सिंग बोंगा : आदिवासियों के देवता 

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Comment

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Comment by Neeraj Neer on June 12, 2014 at 5:25pm

आदरणीय अरुण श्रीवास्तव जी रचना के कथ्य से सहमति एवं कविता पसंद करने हेतू आपका हार्दिक आभार ..

Comment by Neeraj Neer on June 12, 2014 at 5:22pm

आदरणीय सौरभ जी आपके प्रोत्साहन एवं अनवरत दिशा निर्देश हेतू आपका हार्दिक आभारी हूँ , स्नेह एवं आशीष बनाये रखें .. 

Comment by Neeraj Neer on June 12, 2014 at 5:18pm

आदरणीय विजय निकोरे साहब बहुत आपका हार्दिक धन्यवाद ...

Comment by Neeraj Neer on June 12, 2014 at 5:16pm

आदरणीय विजय मिश्र जी आपके प्रोत्साहन हेतू आपका हार्दिक धन्यवाद. 

Comment by Neeraj Neer on June 12, 2014 at 5:14pm

आदरणीय भाई जीतेन्द्र गीत जी बहुत आभार आपका ..

Comment by Arun Sri on June 10, 2014 at 11:34am

एक तीर और कई-कई निशाने - ये चमत्कार जैसी घटना जब भी घटती है तो रोमांच हो आता है ! ऐसे ही पीड़ा और विद्रोह के बीच झूलता आपकी कविता का नायक चित्त के कई-कई बिंदुओं को बेध रहा है ! प्रभावित करती कविता !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 9, 2014 at 6:23pm

विस्थापन के दर्द और इसकी विभीषिका को झेलते पूरे समाज की व्यथा एकदम नग्न-देह सामने आयी है. इस नग्नता से आँखें फेर लेने का सॉफिस्टिकेशन जीते उत्तरदायी लोग रंग-रूप से गोरे न भले, सोच से तो हैं ही. यही सोच तो किसी बुधुआ मांझी की नज़र में कइयों को ’दिक्कू’ बना डालती है तो किसी को ’साहेब’.

प्रकृति-दोहन का वीभत्स रूप प्रकृति-शोषण है. लेकिन इसका जघन्य स्वरूप है मानवीय संवेदनहीनता ! जो बुधुआ जैसे हजारों के हाथों को धारदार या धमाकेदार बनाती जा रही है.

तथ्यों के बिम्ब संप्रेष्य हैं.  आपकी रचनाओं में अब ग़ज़ब की धार आ गयी है. एक सशक्त रचना के लिए हार्दिक बधाई, भाईजी..

शुभ-शुभ

 

Comment by vijay nikore on June 9, 2014 at 6:11pm

आदिवासी की व्यथा को सामने लाने के लिए धन्यवाद। सुन्दर भावपूर्ण रचना के लिए बधाई।

Comment by विजय मिश्र on June 7, 2014 at 6:05pm
धनवाद ,झरिया आदि कोयले की खदानों वाले क्षेत्र की यह अचर्चित व्यथा कथा है जो रोज किसी एक या अनेक बुधुआ को उजारती फिरती है |सक्षम चित्रण | बधाई नीरजी |
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 6, 2014 at 12:02am

 बहुत ही मार्मिक और वास्तविक व्यथा का चित्रण किया है आपने आदरणीय नीरज जी,बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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