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2122 1212 22/112

मुल्क़ में किस्सा इक नया तो हो

अब अज़ीयत की इंतिहा तो हो                अज़ीयत =यातना

 

ग़म से किसको मिली नजात यहाँ

मर्ज़ कहते हो फिर दवा तो हो

 

जी उठेगा फिर अपनी राख से पर

वो मुकम्मल अभी जला तो हो

 

दीनो-ईमाँ की बात करते हैं

हो हरम दिल में बुतकदा तो हो                      हरम =मस्जिद,  बुतकदा =मंदिर

 

ज़ह्र अपनी ज़बान से छूकर

कह रहे हैं कि तज़्रिबा तो हो

 

रुख़ हवा का बदल गया है “शकूर”

किस तरफ चलना है पता तो हो  

 

- मौलिक व अप्रकाशित

 

 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 5, 2014 at 9:29pm

बहुत खूब ..क्या कहने ..वाह 

Comment by Sushil Sarna on June 5, 2014 at 7:18pm

जी उठेगा फिर अपनी राख से पर

वो मुकम्मल अभी जला तो हो......वाआआआआआअह शकूर भाई वाआआआअह हर अशआर ग़ज़ल का शानदार   .... इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by coontee mukerji on June 5, 2014 at 5:31pm

बहुत सुंदर गज़ल है...आपको दिल से बधाई.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 5, 2014 at 12:22pm

शिज्जू भाई

हमशा  की तरह एक  सुन्दर गजल i  सभी अशआर अच्छे है  किसी एक की दाद क्या दूं i  शुभकामनाएं i

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