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.जिंदगी तुझे ही पढ़ लेते हैं ---डा० विजय शंकर

चलो किताबों को बंद कर देते हैं
जिंदगी तुझे ही सीधे-सीधे पढ़ लेते हैं .
किताबों में सबकुझ तेरे बारे में ही तो है
लो , तुझसे ही सीधे-सीधे बात कर लेते हैं.
किताबें तो बहुत सी हैं , मिल भी जायेंगीं
उन को पढ़ लूँ तो क्या तू मिल जायेगी .
मौत को कितने और कौन-कौन पढ़ते हैं
पर उसका वादा है , सबको मिलती है .
भरोसा नहीं , तू किसको मिले , कितनी मिले
तेरे लिये , तेरे चाहने वाले दिन रात लगे रहते हैं .
अरे सब कुछ तो तेरे लिए ही है जिंदगी में
तू है तो सब है , तू नहीं तो क्या है जिंदगी में .
इसलिए चलो किताबों को बंद कर देते हैं .
तू है , तुझसे सीधे-सीधे बात कर लेते हैं .
..डा० विजय शंकर---------------
( मौलिक और अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on June 14, 2014 at 9:09am
Beautiful . You are really an established poet . My regards to you Zid Saheb .
Comment by Zid on June 14, 2014 at 7:56am

One of my first introduction to gazhals was through Lagta nahi hai dil mera...Years on the kafiya & raddif had been on my mind. Its a pleasure sharing my gazhal structured on the same. Whereas the Rafi has sung the same in Raag Yaman Kalyan set to Dadra (Actual music does not play the rhythm) , I composed the saem in raag Maarwa-set to addha Tal 

कैसे  हुवे  है  शर्मसार  आज  वो   इकरार  में

जैसे  न  हो  कोई  भी  तर्क  इसमें  और  इंकार  में

कौनसी  खबर  लए  हो  बशीर   बयाबान  से 

अब  क्या  हसी  भरोगे  तुम  अजीब -ओ -बेक़रार  में

रहने  दो    सब्र  थोड़ी दुरुस्त -ओ -बुनियाद  है

बंदः  किये  है  सजदा  ताजिस्ट   तेरे  इंतज़ार  में 

ले  आये  बरिह्या  यहाँ  जज़्ब -ओ -रक्स  तुम  

अब  कौन  नज़र -शनास  मिले  ऐसे  पा -ओ -झंकार   में

जस्बा -ओ -जफ़ा  अलट  पलट  दिखाए  हर  अदा   से

बाकि  नहीं  कुछ  भी  जमाल -ओ - शक्ल -ओ - सरसार  में

आएंगे  उठके  हम  न  कभी  तमाशा -ऐ -दोज़ाक   से

अब  क्या  करे  बग़ावत  फकत  एक   दो  चार  में  

ये  कौनसा  ईमान  है  जो  पढ़  रहे  हो  ज़िद

ढूंढे  है  फितरत -ओ -जहा   बेकस  गुलोकार  में

Comment by Zid on June 14, 2014 at 7:21am

Each one of us has a problem communicating with world. As we make ourselves more & more dependedent on technology the humna chord is becoming torn, twisted; almost jarring. I wish to represent all those who share my anxiety & dis-position.

ऐसी   सिमटी  कायनात   न  जाने  बहरे  किधर  को  गई

मुह  ताकते  रह  गए  शब -ऐ -नम  किधर  को   गई

रहने  दो  यह  सूरते -मस्नूई  खाक  जी  सकेंगे 

तमाम  बातें  है  ख़म  अख्लाख़  किधर  को  गई 

इस  शेहेर  में  शै  है  कबीले -इल्तिफ़ात  बहोत

लोग  बेहेले  रास्तोंपर  पुख्ता  महफ़िल  किधर  को  गई

खुद -ज़ुल्मी  हमसे  न  होगी  के  दुकानोमें  बीके

न  जाने  फिक्रो -फन -ओ -कास्त्रे -शान  किधर  को गई

क्या  कशिश  थी  के  कुछ  हुवे  फ़ना  आज -खुद  रफ्ता

लो  बुज़नेसे  पहले  आखिर -ऐ -शब  किधर  को  गई

पूछते  क्या  हो  अदीब  की  ज़ुबा  होती  ही   है  कर्मफरमा

वह -नह -आह -होगी  मगर  वो  निगाही  किधर  को  गई

ऐ  शमा  तू  रोशन -सितारा  रहना  दास्ताँ -ऐ -मार्ग 

कौन  पढ़े  तारीकी में  मंज़िल  किधर  को  गई

ताजिस्ट  क़र्ज़  किये    ज़मनेने   कुछ  इनाम  तो  देते

पर तेरी  भी  ज़िद  गुमगश्ता  न  जाने  किधर  को  गई

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 13, 2014 at 12:08am
पंक्तियाँ आपको पसंद , धन्यवाद आ ०मीना पाठक जी.
Comment by Meena Pathak on June 12, 2014 at 9:57pm

क्या बात है .. बहुत सुन्दर .. बधाई आप को

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 12, 2014 at 8:08pm
आपकी प्रेरक अभिव्यक्ति एवं बधाई लिए धन्यवाद , आ ० अन्नपूर्णा बाजपेयी जी.
Comment by Dr. Vijai Shanker on June 12, 2014 at 8:07pm
ह्रदय से आभार , प्रिय गिरिराज जी ,
Comment by annapurna bajpai on June 12, 2014 at 7:52pm

सुंदर रचना , आ0 विजय शंकर जी बधाई आपको । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 12, 2014 at 6:09pm

लाजवाब चिंतन के लिये आपको दिली बधाइयाँ , आदरणीय विजय भाई ॥

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 11, 2014 at 10:36pm
Thanks for encouragement and appreciation, Jitendura Geet ji.

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