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जिसको तुमने खोया माना-डा० विजय शंकर

जिसको तुमने खोया माना है ,
उसको मैंने पाया जाना है ।
कुछ अटपटा , उलटा सा लगता है ,
पर जिन्दगीं तुमको मैंने ऐसा ही जाना है
जो खो गया , वो क्या ले गया ,
हाँ, अपनी स्मृतियाँ छोड़ गया ||
कुछ मीठी , कुछ तीखी,
पर जीने के लिए बहुत
काफी है , एक सहारे की तरह ||
एक गीत , एक कविता लिखता हूँ ,
जब तक लिखता हूँ , मेरा है , जब
छोड़ देता हूँ , पढ़ने वालों के लिए,
मेरा क्या रह गया उसमें , पर
खो दिया, क्या मैंने उसको ,
गर खो दिया , तो वही तो पाना है ,
जिसको औरों ने गवाना जाना है ||
---+------+-----+-----+---
मानव रह गया समेटते ,
कहाँ समेट पाया सारा ,
जब अपना खोया सारा
उस दिन पाया जग सारा ||

मौलिक एवं अप्रकाशित
डा० विजय शंकर

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Comment by Dr. Vijai Shanker on June 20, 2014 at 1:06am
आदरणीय सुशील सरना जी ,
आपका विश्लेषण सही है, धन्यवाद। आपको रचना पसंद आयी , बहुत अच्छा लगा जानकार।
आपकी पूरक पंक्तियाँ बहुत अच्छी हैं , जगत मिथ्या का सिद्धांत निरूपित करती इन पंक्तियों के लिए भी बहुत बहुत धन्यवाद।
सादर।
Comment by coontee mukerji on June 19, 2014 at 11:51pm

बहुत सुंदर कथन. हार्दिक बधाई.

Comment by कल्पना रामानी on June 19, 2014 at 10:30pm

इक कल है जो बीत गया
इक कल में गहन अँधेरा है
सांस सांस इस पल को जी ले
जीवन आती सांस का मेला है...गहन चिंतन की सुंदर प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बधाई आदरणीय विजय शंकर जी

Comment by Sushil Sarna on June 19, 2014 at 6:54pm

शानदार आध्यात्मिक रचना …… सुंदर शब्द विन्यास और सरल प्रवाह की इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ विजय शंकर जी। । इसी सन्दर्भ में चंद पंक्तियाँ आपकी नज़र :

न मेरा है न तेरा है
ये जग रेन बसेरा है
इक कल है जो बीत गया
इक कल में गहन अँधेरा है
सांस सांस इस पल को जी ले
जीवन आती सांस का मेला है
जिस काया है पे नाज़ तुझे
वो बिन सांस मिट्टी का ढेला है
सुशील सरना

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 19, 2014 at 5:29pm
बहुत सुन्दर आ o गोपाल नरायन जी,वर्तमान ही जीवन है , धन्यवाद ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 19, 2014 at 12:17pm

आदरणीय

मत अतीत का मोह करो तुम

               वर्तमान जीवन जीवन है i

वर्तमान में जीन वाले

              को ही करता ईश नमन है i

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