कभी का मर चुका हूँ मैं महज साँसें ही चलती है
मेरी पथरा गयी आँखें मगर फिर भी बरसती हैं
के अक्सर खींच लाती है मुझे लहरों की ये मस्ती
मगर मँझधार में लाकर ये लहरें क्यों मचलती हैं
बहुत है दूर वो मुझसे नहीं आना कभी उसको
मगर दीदार को आँखें न जाने क्यों तरसती हैं
कहीं गुमनाम हो जाऊँ ये शहरा छोड कर मैं भी
मगर दुनियाँ तेरे जैसी तेरे जैसी ही बस्ती हैं
मेरा ये बावफा होना किसी को रास ना आया
सभी की आदतें आपस में कितनी मिल्ती जुल्ती हैं
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
इता दोष के कारण मतला के खारिज़ होने का खतरा है, आदरणीय.
शहरा को अवश्य ही आप सहरा कहना चाहते होंगे. अन्यथा ये शब्द मेरे लिए नया है.
शुभ-शुभ
आदरणीय कटारा जी, आप ने बड़ी उम्दा ग़ज़ल कही है | ...हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
आदरणीय उमेश भाई , गज़ल बहुत लाजवाब कही है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ एक दो ज़गह टाइपिंग की गलती हो गई है , सुधार लीजियेगा ।
1- मझे लहरों की ये मस्ती ---- मुझे कर लीजियेगा 2- सभी का आदतें -- को -- सभी की आदतें , कर लीजियेगा ॥सादर !!
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