तुम्हारे और मेरे बीच है
कांच की एक मोटी दीवार
जो कभी कभी अदृश्य प्रतीत होती है
और पैदा करती है विभ्रम
तुम्हारे मेरे पास होने का
मैं कह जाता हूँ अपनी बात
तुम्हें सुनाने की उम्मीद में
तुम्हारे शब्दों का खुद से ही
कुछ अर्थ लगा लेता हूँ.
क्या तुम समझ पाती होगी
मैं जो कहता हूँ
क्या मैं सही अर्थ लगाता हूँ
जो तुम कहती हो ..
कांच की इस दीवार पर
डाल दिए हैं कुछ रंगीन छीटें
ताकि विभ्रम की स्थिति में
मुझे सत्य बता सकें .
कांच के उस पार से
तुम्हे देखना अच्छा लगता है
अच्छा लगता है तुम्हारी
अनसुनी बातों का
खुद के हिसाब से अर्थ लगाना ..
नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
सुन्दर एवं सार्थक रचना नीरज जी कम शब्दों में बहुत कुछ कहती प्रतीत होती हुई !
परस्पर आश्रित दो ज़िन्दग़ियाँ अचानक समानान्तर चलती दिखने लगें तो काँच की दीवार एक अनावश्यक सच्चाई बन मध्य के आसन्न कोणों के परिमाप को और मुखर करती हुई तिर्यक होती चली जाती है.
काँच की दीवार पर रंगीन छींटों का बिम्ब बहुत कुछ साझा करता हुआ है, भाईजी. वृत्तियों का रंगीन होना अहं के स्थूल स्वरूप का ही परिचायक हुआ करता है. इस संदर्भ ने कविता का स्तर निर्धारित कर दिया है.
एक बार फिर आपकी कविता ने गहरे छुआ है, भाई नीरज जी.
शुभकामनाएँ
आदरणीया डॉ प्राची सिंह साहिबा । जिस सूक्ष्मता एवं विस्तार से आपने इस कविता का विश्लेषण किया उसके लिए जितना आभार व्यक्त करूँ कम ही है ॥ आपकी टिप्पणी की सदा ही प्रतीक्षा रहती है । इस सार्थक टिप्पणी के लिए बहुत धन्यवाद।
आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी आपका हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय भाई जितेंद्र जी आपका बहुत धन्यवाद।
आदरणीय गिरिराज भण्डारी जी आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय नादिर खान जी आपके समर्थन एवं प्रोत्साहन के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीया अन्नपूर्णा वाजपेयी आपका आभार।
आदरणीया इस उत्साहवर्द्धन के लिए आपका आभार ।
आदरणीय नीरज जी
दो व्यक्तियों के बीच की ये दीवार कभी कभी खुद ही ढह जाती सी प्रतीत होती है...पर उसके होने का एहसास ना कुछ कहने देता है ना ही सुनने देता है...लेकिन मन तो अपने आप ही अर्थ बूझता रहता है..सवाल भी करता रहता है....शब्दों की या फिर उपस्थिति की भी ऊर्जा की भाषा मन भली भाँति समझता जो है
तुम्हारे और मेरे बीच है
कांच की एक मोटी दीवार
जो कभी कभी अदृश्य प्रतीत होती है
और पैदा करती है विभ्रम
तुम्हारे मेरे पास होने का................यहाँ 'मेरे' शब्द की आवश्यता नहीं प्रतीत हो रही सिर्फ 'तुम्हारे पास होने का' से भी भाव स्पष्ट है
मैं कह जाता हूँ अपनी बात
तुम्हें सुनाने की उम्मीद में
तुम्हारे शब्दों का खुद से ही
कुछ अर्थ लगा लेता हूँ.
क्या तुम समझ पाती होगी
मैं जो कहता हूँ
क्या मैं सही अर्थ लगाता हूँ
जो तुम कहती हो ..
कांच की इस दीवार पर
डाल दिए हैं कुछ रंगीन छीटें.................सुन्दर ख़याल ..वाह!
ताकि विभ्रम की स्थिति में
मुझे सत्य बता सकें .
कांच के उस पार से
तुम्हे देखना अच्छा लगता है
अच्छा लगता है तुम्हारी
अनसुनी बातों का ...............................अनसुनी /या अनकही .....जब सुनी समझी ही नहीं तो अर्थ कैसे लगायेंगे ?
खुद के हिसाब से अर्थ लगाना ..
अभिव्यक्ति की अंतर्धारा नें बहुत प्रभावित किया... अपनी समझ भर कुछ कहने का प्रयास किया है..शायद सार्थक प्रतीत हो.
शुभकामनाएं
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