आज सुबह-सुबह दरवाजे पर दस्तक हुई.
रोज की तरह..
वर्तमान ही होगा..
विगत के द्वार से आया
दुरदुराया गया हुआ.. / फिर से.
एक विगत के द्वार ही तो जाता है ये..
कुछ नहीं मिलने का कोई ठोस कारण भी तो नहीं इसके पास
कि, बावला / फिर कभी / उसके द्वार न जाता.
वर्ना, भविष्य ने कभी खोले ही कहाँ हैं द्वार ? किसी के लिए ?
बड़ा सूम रहा है वो एक शुरु से..
निर्मोही !
आखिर जरुरत ही क्यों
किसीको किसीके द्वार जाने की ?
लेकिन कहते हैं न..
रात भर खुली आँखों बनती-सँवरती आशाओं की सूरत / घनीभूत हो
इतनी बलवती हो जाये कि देह की पोर-पोर बरसने लगे
तो पूरी देह पौ फटते न फटते ऐँठने लगती है
रुका नहीं जाता फिर एकदम से !
अतृप्ति की इसी पूर्णता को जीता है वर्तमान !
फिर,
विगत ने ही / कई-कई बार
क्या नहीं चटाया है इसे.. !
उन्हीं कुछ चटनियों की उम्मीद लिये आज तक ये.. ओऽऽऽऽह ! ..
और बस,
पौ फटते न फटते
कदम अनमनाये बढ़ जाते हैं.
जब कभी धूप दौड़ती नहीं, फिरती नहीं, कुछ करती नहीं
तो मौका पाते ही चिलचिलाने लगती है.
वर्तमान की धूप भी रात भर जज्ब रहती है
बिस्तर पर गुड़मुड़ी पड़ी हुई
सो रह-रह कर चिलचिलाने लगती है
और वर्तमान बार-बार तिलमिला जाता है.
एष्णाओं की धूप से जब सर्वज्ञाता ऋषि-मुनि नहीं बच पाये,
जो जीते जी निर्विकार, अक्रिय, विचित्र मान लिये गये थे ..
फिर ये बेचारा तो एष्णाओं को ही जीने को अभिशप्त है, पूरी सक्रियता के साथ !
वर्तमान है न ! ..
इसे हर हाल में जीना है ..
और, बिना उम्मीद जीना भी कोई जीना है क्या ?
यही कहने आया है मुझसे शायद, कि, मिला.. कि, नहीं मिला..
दस्तक हुई है आज फिर मेरे दरवाजे..
और मैं.. / धुर विपन्न, चिरकाल से..
वर्तमान की सुन लेता हूँ,
जाता क्या है !
************
-सौरभ
************
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
कहाँ से ढूँढ लायीं इस वर्तमान को ! .. :-))
हार्दिक धन्यवाद आदरणीया कान्ताजी ..
आज सुबह-सुबह दरवाजे पर दस्तक हुई.
रोज की तरह..
वर्तमान ही होगा..
विगत के द्वार से आया
दुरदुराया गया हुआ.. / फिर से.------- वाह ! वाह ! ...यहाँ " दुरदुराना " तो गज़ब का सौन्दर्य दे गया है इस पद में , अभिभूत हूँ पढ़ा कर . पूरी कविता में ही एक अलग सा मिजाज़ देखने को मिला है .
वर्ना, भविष्य ने कभी खोले ही कहाँ हैं द्वार ? किसी के लिए ?
बड़ा सूम रहा है वो एक शुरु से..
निर्मोही !-------गज़ब का कथ्य और अलबेला ,मस्त -मौला सा अंदाज है कहन का ....वाकई आपकी रचनाओं से गुजरना पाठन की तृप्ति दे जाता है . अभिनन्दन आपको
आदरणीया प्राचीजी, आपके अनुमोदन को सादर स्वीकार करता हूँ. इस रचना के मर्म को आपने मान दिया इस हेतु सादर आभार.
विलम्ब से आभार ज्ञापन करने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.. .
सादर
जाने क्यों रुका रुका सा वर्तमान बार-बार विगत को ताकता है... टूटते सपनों की चुभन लिए पर फिर भी उतना ही स्वप्निल सा
विगत पहचाना सा..अपना सा जो लगता है..
एष्णाओं को जीने को अभिशप्त सा वर्तमान... गुपचुप कितना अधूरापन जीता है...और हमसे बातें करता सा हमें ही टटोलता हुआ हमें हमारी विवषता को फिर फिर दिखाता सा......उफ्फ
जैसे रेशा रेशा स्पष्ट करके आपने इस वर्तमान का हर ताना बाना पहचाना और शब्दों में उकेर दिया.हृदय को स्पर्श करती अद्वितीय अभिव्यक्ति
बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ जी
सादर.
रचना को समय देने के लिए आपका सादर आभार आदरणीया मंजरी जी.
आदरणीया कुन्तीजी, प्रस्तुत रचना पर आपके इंगित मुझे बहुत स्पष्ट नहीं हुए.
आप पाठक हैं, आपके कहे के अनुसार मैं भी इस रचना को देखने का प्रयास करूँगा.
सादर आदरणीया
आपका सादर आभार, आदरणीय विजय निकोरजी
हार्दिक धन्यवाद, भाई जितेन्द्र जीत जी.
आदरणीय लक्ष्मण धामीजी, आपकी सदाशयता से अनुगृहित हुआ.
सादर आभार
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