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मन के भावो को
कल्पना की कलम से
कोरे कागज़ पर
उतारता हूँ.
शब्दों की  आड़ में,
चिंता के झाड़ से
बचाई "संवेदना" को
संवारता हूँ,
कागज की नाव पर
सपनो के सागर में
सच की पतवार लिए
हिलकोरे खाता हूँ.
डूबना -उतराना तो
खेल है जीवन का
जाने क्या आश लिए
क्षितिज तक जाता हूँ.

विजय प्रकाश शर्मा.
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 2, 2014 at 9:48am

कवि की कल्पना क्षितिज के पार जाने की क्षमता रखती है | "जहां न पहुचे वहां पहुचे कवि" कवि की कल्पना के उड़ान पर 

रची रचना के लिए बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 2, 2014 at 8:56am

मन के भावों को खूबसूरती से शब्दों में उकेरा गया है बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिये

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 1, 2014 at 9:19pm

डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,
इस स्नेहसिक्त सराहना के लिए कोटि-कोटि आभार.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 1, 2014 at 6:12pm

वाह ! जाने क्या आश लिए छितिज तक जाता हूँ /कवियो  के पास है ही क्या / बस यही कागज की नाव/ लेकिन इससे वह सफ़र तय होते है जो सूर्य को दुर्लभ है / कहते है न  जहाँ न पहुचे रवि वहां पहुंचे कवि i  सादर i

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