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सावनों में फिर हमारे घाव ताजा हो गये
रंक सुख से हम जनम के, दुख के राजा हो गये
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साथ माँ थी तो दुखों में भी सुखों की थी झलक
माँ गयी है छोड़ जब से सुख जनाजा हो गये
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कल तलक जिनकी गली भी कर रही नासाज थी
आज क्यों कर वो तुम्हारे दिल के ख्वाजा हो गये ( ख्वाजा - स्वामी )
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कोइ चाहे देह हरना और कोई दौलतें
आज रिश्ते क्यों सभी को यार काज़ा हो गये ( काज़ा - शिकारी के छिपने का गड्ढा )
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पाँच वर्षो से हमें तुम कह रहे थे रद्दियाँ
अब चुनावों के समय क्यों हम तकाजा हो गये ( तकाजा - जरूरत )
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जिक्र भर से जिनके तुमको उल्टियाँ आती रही
आ सियासत में कहो क्यों वो ही आज़ा हो गये ( आज़ा - शरीर का अंग/अतिप्रिय )
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सोचते थे तुम नहीं हो खार पाले जो शजर
पतझड़ों में तो ‘मुसाफिर’ तुम भी वाज़ा हो गये ( वाज़ा - प्रकट /हकीकत सामने आना )
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ० भाई गिरिराज जी ग़ज़ल के अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार l
आ० भाई जीतेन्द्र जी , उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद l
कल तलक जिनकी गली भी कर रही नासाज थी
आज क्यों कर वो तुम्हारे दिल के ख्वाजा हो गये...........बहुत खूब, क्या गजब का शेर हुआ है
आदरणीय लक्ष्मण जी, आपको हार्दिक बधाई
आ० मंजरी जी रचना का अनुमोदन कर उत्साहवर्धन करने के लिए हार्दिक धन्यवाद l
आ० भाई गोपाल नारायण जी , यह तो आपका बड़प्पन है जो रचनाओं को इतना मान दे रहे हैं l अभी तो लेखनी को बहुत ही सुधार की जरुरत है l ओ बी ओ परिवार का स्नेहाशीष मिलता रहा तो उसमे जरूर सुधार कर पाउँगा l स्नेहाशिस बनाये रखें l
धामी जी
आप तो सदाबहार है i क्या गजल और क्या आखिरी शेर -साथ ही
साथ माँ थी तो दुखों में भी सुखों की थी झलक
माँ गयी है छोड़ जब से सुख जनाजा हो गये
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