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मिला जो, कब खुशी उससे समेटी यार लोगों ने - ग़ज़ल

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1222 1222 1222 1222
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जनम से आदमी हो, आदमी क्यों हो नहीं पाया
कि नफरत से भरे दिल में मुहब्बत बो नहीं पाया
***
सितारे तोड़ डाले सब, करम उसका यही है बस
खता मेरी रही इतनी कि जुगनू हो नहीं पाया
***
मिला जो, कब खुशी उससे समेटी यार लोगों ने
उसी का गम जिगर को है जमाने जो नहीं पाया
***
तुझे क्यों खांसना उसका दिनों में भी अखरता है
पिता जो तेरे बचपन में भरी शब सो नहीं पाया
***
न जाने कौन सी कालिख कहाँ से पोत लाए तुम
जनम गुजरा मगर मैं भी इसे सच धो नहीं पाया
***
‘मुसाफिर’ जिंदगी उसकी बता कैसी रही होगी
हँसी दुख में नहीं आई खुशी में रो नहीं पाया
***
( रचना -१८ मई २०१४ )
***
( लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2014 at 5:30pm

आपके ग़ज़ल के लिए हार्दिक धन्यवाद, लक्ष्मण धामी जी.

आपकी सोच बहुत ही उन्नत है. जल्दबाजी से बचें और शेरों पर तनिक और समय दें तो बहुत कुछ और भी संयत ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है. ऐसा मेरा मानना है.

मतले में ही शुतुर्गुर्बा का ऐब लग रहा है.
जनम से आदमी हो, आदमी क्यों हो नहीं पाया
यह मिसरा कायदे से ऐसा होना था -

जनम से आदमी हो, आदमी क्यों हो नहीं पाये 

लेकिन इसे यों भी किया जा सकता है ताकि ग़ज़ल के रदीफ़ को संतुष्ट कर पाये -
जनम से आदमी ही आदमी क्यों हो नहीं पाया..   अब यह प्रश्न तार्किक भी लगता है.

इस शेर का मुझे कोई अता-पता नहीं मिल पाया -
मिला जो, कब खुशी उससे समेटी यार लोगों ने
उसी का गम जिगर को है जमाने जो नहीं पाया..  ..
अवश्य है, मेरी समझ में बात नहीं आयी है. माफ़ कीजियेगा


इस शेर पर दिल से दाद कुबूल करें, भाईजी -
तुझे क्यों खांसना उसका दिनों में भी अखरता है
पिता जो तेरे बचपन में भरी शब सो नहीं पाया

साथ ही मक्ता का तो भाईजी जवाब नहीं है.
बहुत-बहुत बधाई

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 2, 2014 at 10:32am

आ० भाई गुमनाम जी , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 2, 2014 at 10:31am

आ० भाई विजय निकोर जी ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया का अर्थ यही है की लेखन सफल हुआ l स्नेहाशीष बनाये आखें यही कामना है l

Comment by gumnaam pithoragarhi on July 1, 2014 at 4:29pm

बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है.................................बधाई,

Comment by vijay nikore on July 1, 2014 at 3:51pm

इस अच्छी गज़ल के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय लक्ष्मण जी।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 1, 2014 at 10:09am

आ० बृजेश भाई उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद l स्नेह बनाये रखें l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 1, 2014 at 10:08am

आ० भाई गिरिराज जी आपका स्नेहाशीष पाकर धन्य हुआ , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 1, 2014 at 10:05am

आ० भाई जीतेन्द्र जी ग़ज़ल आप तक पहुंची लेखन सार्थक हुआ हार्दिक धन्यवाद l

Comment by बृजेश नीरज on June 30, 2014 at 11:29pm
अच्छी ग़ज़ल। आपको बधाई।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 30, 2014 at 6:18pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , पूरी ग़ज़ल बहुत अच्छी कही है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

तुझे क्यों खांसना उसका दिनों में भी अखरता है
पिता जो तेरे बचपन में भरी शब सो नहीं पाया  --------- बात अन्दर तक लगी । बधाई भाई जी ।

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