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अभी सुहाग कि मेहंदी हटीं न हाथों से
जहर उगलने लगे हैं बशर तो बातों से
जो घूमते थे सदा तान सीना जंगल में
वो शेर टूटे हैं जंगल में अपनी मातों से
हयात रो के गुजारी तमाम जनता नें
कहाँ ये लात के हैं भूत मनते बातों से ?
सुना है आज वो संसद है इक मंदिर सी
सुना था पहले जो चलती थी घूंसे लातों से
गले न मिलते हैं अब लोग इस सियासत में
कहीं न छीन ले कुर्सी ही कोई घातों से
है जात पांत से उनका गुरेज दिखलावा
चली है जिनकी सियासत ही जात पांतो से
सियाह रातें ये देकर हमें विरासत में
कहें दिवाली मना के दिखा बताशों से
पिए हैं घूँट जो कडवे अभी तलक यारों
उन्हें नसीब समझ मत तू इन कयासों से
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरनीय जीतेन्द्र जी .,आदरणीय गोपाल सर , अरुण जी, आदरणीय केवल जी , एवं आदरणीय शिज्जू जी ..किसी कारन वश दो तीन दिनों से दूर था ..आप सभी का स्नेह मुझे और मेरी रचना को मिला इसके लिए तहे दिल धन्यवाद ..सादर नमन के साथ
बहुत बढ़िया आदरणीय डॉ आशुतोष सर सादर बधाई स्वीकार करें
आ0 आशुतोष भाईजी, बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
आदरणीय आशुतोष जी बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने हार्दिक बधाई स्वीकारें.
मित्र आशुतोष जी
बेहतरीन गजल उतरी है
अभी सुहाग कि मेहंदी हटीं न हाथों से
जहर उगलने लगे हैं बशर तो बातों से
जो घूमते थे सदा तान सीना जंगल में
वो शेर टूटे हैं जंगल में अपनी मातों से
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वाह! बहुत खूब, आपकी गजल का हर शेर सामयिक हुआ है आदरणीय डा.आशुतोष जी
पिए हैं घूँट जो कडवे अभी तलक यारों
उन्हें नसीब समझ मत तू इन कयासों से...........बहुत खूब, कमाल. दिली बधाई आपको
आदरणीया कल्पना जी ..मेरी रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए दिल से हार्दिक धन्यवाद सादर
हयात रो के गुजारी तमाम जनता नें
कहाँ ये लात के हैं भूत मनते बातों से ?....बिलकुल सही कहा
शानदार गजल हुई है आदरणीय आशतोष मिश्रा जी, दिली बधाई स्वीकार कीजिये
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