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ग़ज़ल - रोज़ करवट हम बदल के देखते हैं ( गिरिराज भंडारी )

2122    2122      2122 

 

नाम  अपना  चल  बदल  के देखते हैं

घेरे से  बाहर  निकल  के  देखते   हैं

 

चाँद  सुनता  हूँ  कि थोड़ा पास आया

आ  ज़रा  फिर से  उछल के देखते हैं

 

पैरों  को  मज़बूतियाँ  भी  चाहिये कुछ

चल  ज़रा  काटों पे चल  के  देखते हैं

 

रोशनी  की  चाह में तो  हैं  बहुत, पर 

कितने हैं ? जो ख़ुद भी जल के देखते हैं 

 

कुछ मज़ा फिसलन में है,गर है यक़ीं तो  

हम  कभी  यूँ  ही  फिसल के देखते हैं

                                              

ख़्वाब  शायद  हो सुनहरा, क़िस्मतों में

रोज़  करवट  हम  बदल  के  देखते हैं

 

बह  के  जाने का  कहाँ  तक दायरा है

आ  किसी दिन हम पिघल के देखते हैं 

 

क्या  ख़रीदें ,  हम  बजारों  में हमेशा

जेब खाली , बस  टहल  के  देखते  हैं 

 

बचपने की फिर उन्हीं खुशियों की खातिर 

हम  भी  बच्चों  सा  मचल के देखते हैं  

 

आधुनिकता  क्या  बला है  जान तो लें 

एक दिन आ , हम भी  ढल के देखते हैं

 

शर्म  जैसी  बात  बरसों  से  नहीं पर

आज  भी ‘ उनको ’ सँभल के देखते हैं

************************************ 

मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

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Comment

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Comment by गिरिराज भंडारी on July 12, 2014 at 3:42pm

आदरणीय श्याम भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ॥

Comment by Shyam Narain Verma on July 12, 2014 at 10:49am
" सुंदर गजल के लिए हार्दिक बधाई   "

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 11, 2014 at 2:35pm

आदरणीय नीलेश भाई , गज़ल पर आपकी एक ज़िम्मेदार प्रतिक्रिया के लिये  आपका बहुत शुक्रिया । है कोई , वाले शे र की गलती को मै स्वीकार पहले ही कर चुका हूँ और आदरणीया राजेश जी ने जो मिसरा सुझाया है उसे स्वीकार भी कर लिया हूँ । पुनः ध्यान दिलाने के लिये आपका आभारी हूँ । क़िस्मतों और मज़बूतियाँ मुझे तो सही लग रही हैं , थोड़ा इंतिजार किया जा सकता है , वरिष्ठ जनों का ।

जो भी आवश्यक संशोधन होगा एक साथ मै कर लूंगा ॥ ऐसे ही सहयोग सदा देते रहें , आपका पुनः आभार ॥

Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 11, 2014 at 1:53pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है आदरणीय ..बधाई क़ुबूल करें ..
"है कोई" से एकवचन का फील आता है ..जिसका इलाज  आ. राजेश कुमारी जी ने बता ही दिया है 

एक मिसरे में "किस्मतों" में भी ठीक प्रतीत नहीं होता है ..

अक अन्य मिसरे में "मजबूतियाँ" थोडा खल रहा है 
.
पाँव अपने चाहिए मज़बूत हमको  ....ऐसा कुछ लिखने से 19 -20 का फ़र्क भी समाप्त हो जाएगा..
एक बार फिर से दिली दाद क़ुबूल कीजिए ..
सादर 


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Comment by गिरिराज भंडारी on July 10, 2014 at 10:22pm

आदरणीय शिज्जु भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


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Comment by गिरिराज भंडारी on July 10, 2014 at 10:21pm

आदरनीया राजेश जी , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥

आदरणीया , आपकी सलाह बहुत सही है , आपका आभार।आपके सुझाये मिसरे को मै स्वीकार कर रहा हूँ, आवश्यक संशोधन कर लूंगा ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 10, 2014 at 9:44pm

वाह आदरणीय गिरिराज सर बहुत खूबसूरत रवाँ ग़ज़ल है हर शेर मानो बाँध के रख देता है हर शेर के लिये दिली दाद हाज़िर है


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Comment by rajesh kumari on July 10, 2014 at 9:39pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है आ० गिरिराज जी ,वाह्ह्ह कोई अशआर बचपन में पहुँचाता है कोई युवावस्था में तो कोई प्रौढ़ावस्था में सभी एक से बढ़कर एक हैं ----

रोशनी  की  चाह में तो  हैं  बहुत, पर 

है कोई ? जो ख़ुद भी जल के देखते हैं -----हैं कहाँ जो खुद भी जलके देखते हैं ---करें तो कैसा रहे ----है कोई एक वचन का भान दिला रहा है जब कि मिसरे का अंत बहुवचन से हो रहा है ....क्या मैंने ठीक कहा ?

बाकि सभी अशआर काबिलेतारीफ हैं बहुत- बहुत दाद कबूलें |

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 10, 2014 at 9:37pm

आदरणीय सुशील भाई , आपने तो ज़र्रे को आफताब बना दिया , ज़र्रा नवाज़ी का तहे दिल से शुक्रिया ॥


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Comment by गिरिराज भंडारी on July 10, 2014 at 9:35pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपकी स्नेहिल सराहना हमेशा मेरा उत्साह वर्धन करती है , आपका हृदय से आभारी हूँ ॥

कृपया ध्यान दे...

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