2122 2122 2122
नाम अपना चल बदल के देखते हैं
घेरे से बाहर निकल के देखते हैं
चाँद सुनता हूँ कि थोड़ा पास आया
आ ज़रा फिर से उछल के देखते हैं
पैरों को मज़बूतियाँ भी चाहिये कुछ
चल ज़रा काटों पे चल के देखते हैं
रोशनी की चाह में तो हैं बहुत, पर
कितने हैं ? जो ख़ुद भी जल के देखते हैं
कुछ मज़ा फिसलन में है,गर है यक़ीं तो
हम कभी यूँ ही फिसल के देखते हैं
ख़्वाब शायद हो सुनहरा, क़िस्मतों में
रोज़ करवट हम बदल के देखते हैं
बह के जाने का कहाँ तक दायरा है
आ किसी दिन हम पिघल के देखते हैं
क्या ख़रीदें , हम बजारों में हमेशा
जेब खाली , बस टहल के देखते हैं
बचपने की फिर उन्हीं खुशियों की खातिर
हम भी बच्चों सा मचल के देखते हैं
आधुनिकता क्या बला है जान तो लें
एक दिन आ , हम भी ढल के देखते हैं
शर्म जैसी बात बरसों से नहीं पर
आज भी ‘ उनको ’ सँभल के देखते हैं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
नाम अपना चल बदल के देखते हैं
घेरे से बाहर निकल के देखते हैं
चाँद सुनता हूँ कि थोड़ा पास आया
आ ज़रा फिर से उछल के देखते हैं
वाआआआआआआअह भी इन शेरों के लिए छोटी तारीफ़ है आदरणीय गिरिराज जी … पहले तो मतले ने जान ले ली हर अशआर जानलेवा बना … खैर इस बेहद खूबसूरत ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई कबूल फरमाएं सर
वाह मित्र i मजा आ गया
नाम अपना चल बदल के देखते हैं
घेरे से बाहर निकल के देखते हैं
चाँद सुनता हूँ कि थोड़ा पास आया
आ ज़रा फिर से उछल के देखते हैं ------------बहुत उम्दा i
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