१२२/१२२/१२२/१२२
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न कोई कशिश है न कोई ख़ला है,
ये दिल बावला था ये दिल बावला है.
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गुनहगार ग़ैरों को क्यूँ कर कहें हम,
वो थे लोग अपने जिन्होंने छला है.
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टटोला कई बार ख़ुद को तो पाया,
जहाँ धडकने थीं वहाँ आबला है..... आबला- छाला
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चढ़ा था नज़र में, जिगर तक न पहुँचा,
नज़र से जिगर तक बड़ा फ़ासला है.
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उठाऊंगा मुद्दा क़यामत के दिन ये,
मेरे हक़ का हर फ़ैसला क्यूँ टला है.
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समझना है मुश्किल हुआ क्या अचानक,
यहाँ जिस्म रख कर किधर वो चला है.
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जिसे ले गए सब, वो था ‘नूर’ जैसा,
कोई तो बताए कि क्या मामला है.
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निलेश "नूर"
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया सर
मतले ने ही जादू कर दिया.. फिर तो आगे शेर उसी बहाव में सधते चलेगये.. वाह !
बधाई आदरणीय.
शुक्रिया आ. लक्ष्मण जी
शुक्रिया आ. चंद्रशेखर जी
शुक्रिया आ. आशुतोष जी
शुक्रिया आ. जवाहर जी
शुक्रिया आ. हेमंत जी
शुक्रिया आ. जीतेन्द्र जी
चढ़ा था नज़र मेंए जिगर तक न पहुँचाए
नज़र से जिगर तक बड़ा फ़ासला है........ बहुत लाजवाब शेर
उठाऊंगा मुद्दा क़यामत के दिन येए
मेरे हक़ का हर फ़ैसला क्यूँ टला है .......... वाह क्या बात कही हम भी आपके साथ खड़े हैं
समझना है मुश्किल हुआ क्या अचानकए
यहाँ जिस्म रख कर किधर वो चला है.....क्या खूब कहा
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