कँपकपी
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तुम कौन हो भाई ?
जो शीत से कँपकपाती मेरी देह की कँपकपी को झूठी बता रहे हो
शीत एक सत्य की तरह है
और कंपकपी मेरी देह पर होने वाला असर है
शीत-सत्य पर मेरा अर्जित अनुभव , व्यक्तिगत , सार्वभौमिक तो नहीं न
क्या तुम्हारे माथे पर उभर आयीं पसीने की बून्दें भी झूठी है
क्या मैने ऐसा कहा कभी ?
ये तुम्हारा व्यक्तिगत अनुभव है , इस मौसमी सच की आपकी अपनी अनुभूति
तुम्हारी देह की प्रतिक्रिया पसीना है , तो है , इसमे गलत क्या है ?
इससे मेरी कँपकपी झूठी तो नहीं हो जाती , और न ही पसीना झूठा है
कम से कम इतना ज्ञान तो आपेक्षित ही है , सभ्य मनुष्यों से
सत्य कभी खुद बोला ही कहाँ , वो तो सदा से मौन है
बोलते तो हमारे अनुभव हैं ,
जितनी देह उतने अनुभव , उतने सत्य
जो एक व्यक्तिगत सच से जादा महत्वपूर्ण कभी नही रहा , और न कभी होगा
और अनुभव , जिसकी गहराई तुम्हारी स्मृति से जादा नहीं है
और स्मृतियाँ, सत्य की गहराई के मुकाबले बहुत उथली होतीं है
क्योंकि सत्य का कोई संबन्ध स्मृति से है ही नहीं , वो स्मृतियों से परे हैं
स्मृतियाँ जब भी बात करेगी अर्जित अनुभवों से ही करेगी
सत्य याद करने की वस्तु नहीं , दुहरा लिये और यादों में शामिल कर लिये ,
वक़्त ज़रूरत मे उगल दिये , स्मृतियों के सहारे
मैने सुना है ,
सत्य उद्घाटित होता है , अनुसंधान किया जाता है सच का
मौन में , मौन के अन्धकार में , एक प्रकाश की तरह उदित होता है सत्य
और उद्घाटित करने वाला कभी भी बता नही पाया /पाता , सत्य क्या है ,
क्योंकि , बताने के लिये तो स्मृतियों से ही शब्द लिये जायेंगे न
और स्मृति बहुत उथली है , सत्य के मुकाबले तो और भी जादा उथली
फिर मेरी कँपकपी तो मेरा सत्य है , केवल मेरा
फिर तुम कौन हो भाई ?
मेरी देह की कँपकपी को झूठी बताने वाले ॥
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
आदरणीय भाईसाब ..आप तो दार्शनिक हो गए ..क्या कमाल का बिचार है ..बिलकुल सही कहा है आपने जिसने जो जाना उसे सत्य मन बैठा ..सत्य तो सत्य है अत्यंत गंभीर बिषय पर इस अत्यंत सहज चिंतन के लिए आपको ढेरों बधाई सादर
आदरणीय जितेन्द्र भाई , रचना की सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥
एक बहुत गहरी सोच लिए चिंतन ,साझा किया है आपने आदरणीय गिरिराज जी. सत्य कभी खुद बोला ही कहाँ ,वो तो सदा से मौन ही है . इस पंक्ति में शायद सारी रचना का सार है. बहुत -२ बधाई आपको इस श्रेष्ठ रचना पर
आदरणीय बड़े भाई , रचना पर आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया केलिये आपका आभारी हूँ ॥
टंकण की गलती के लिये क्षमा ! आपके इंगित जगह के अलावा एक जगह और भी है गलती , मै अभी संशोधित कर ले ता हूँ ।सादर आभार
मित्र
आपके विचारो की परिपक्वता असंदिग्ध है i बहुत ही तन्मय और गहरी सोच -----i एक टंकण की त्रुटि खटकती है - एक सभ्य मनुष्यों से i हम सभी टाइप की गल्ती कर जाते हैं i यह आपकी एक और श्रेष्ठ रचना है i
आदरणीय सौरभ भाई , रचना को आपका अनुमोदन मिलना मेरे लिये बड़ी खुशी की बात है , अनकहा सच तक पहुँचने के लिये और रचना की सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
आदरणीय विजय भाई , रचना के उन्मुक्त भाव से सराहना के लिये आपका आभारी हूँ । आदरणीय , रचना के सम्रर्थन मे दी गई सुन्दर रचना के लिये आपको बधाइयाँ ॥
बोलते तो हमारे अनुभव हैं ,
जितनी देह उतने अनुभव , उतने सत्य
जो एक व्यक्तिगत सच से जादा महत्वपूर्ण कभी नही रहा , और न कभी होगा
और अनुभव , जिसकी गहराई तुम्हारी स्मृति से जादा नहीं है
और स्मृतियाँ, सत्य की गहराई के मुकाबले बहुत उथली होतीं है
क्योंकि सत्य का कोई संबन्ध स्मृति से है ही नहीं , वो स्मृतियों से परे हैं
स्मृतियाँ जब भी बात करेगी अर्जित अनुभवों से ही करेगी
सत्य याद करने की वस्तु नहीं , दुहरा लिये और यादों में शामिल कर लिये ,
वक़्त ज़रूरत मे उगल दिये , स्मृतियों के सहारे ..
इन पंक्तियों के माध्यम से बहुत कुछ अनकहा साझा हुआ है आदरणीय गिरिराज भाई.
दिल से बधाई स्वीकार करें..
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