इक ज़माना हो जाता है …
आदमी
कितना छोटा हो जाता है
जब वो पहाड़ की
ऊंचाई को छू जाता है
हर शै उसे
बौनी नज़र आती है
मगर
पाँव से ज़मीं
दूर हो जाती है
उसके कहकहे
तन्हा हो जाते हैं
लफ्ज़ हवाओं में खो जाते हैं
हर अपना बेगाना हो जाता है
ऊंचाई पर उसकी जीत
अक्सर हार जाती है
वो बुलंदी पर होकर भी
खुद से अंजाना हो जाता है
ज़मी के बशर तो
ज़मीं पर ज़िंदा रहते हैं मगर
ज़मीं के वास्ते वो
इक ज़माना हो जाता है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय निकोरे जी रचना के भावों पर आपकी स्वीकृति ने उसका जो मान बढ़ाया है उसके लिए आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी रचना के भावों का आपकी आत्मीय स्वीकृति ने उसका जो मान बढ़ाया है उसके लिए मैं तहेदिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ।
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी रचना पर आपकी मधुर प्रशंसा का हार्दिक आभार।
रचना के भाव बहुत अच्छे लगे। बधाई।
आपकी यह कविता कई-कई तह में सिमटी हुई धीरे-धीरे परत-दर-परत खुलने लगती है, आदरणीय सुशीलभाईजी. पंक्तियों के साथ नहीं, समाप्त होने के बाद. ऐसा बहुत कम होता है. लेकिन जब होता है कविता जीती हुई दिखती है.
प्रस्तुति से मन प्रसन्न है.
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ, आदरणीय.
आदरणीय शुशील जी ..इस अद्भुत चिंतन के लिए आपको तहे दिल बधाई ..आपकी रचना को महसूस किया जा सकता है ..बेहतरीन
आदरणीय सुधील भाई , जीवन की एक कटु सत्य को आपने शब्द दिये हैं , सच है चोटी पर पहुँच कर आदमी अकेला हो जाता है , वैसे भी चोटी पर तो एक ही रह सकता है । कविता के लिये बधाइयाँ
आदरणीय डॉ विजय शंकर जी रचना के भावों को आपकी स्वीकृति ने सृजनकर्ता को जो ऊर्जा दी है उसका हार्दिक आभार
आदरणीय गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी रचना के भावों को स्वीकृति देती अभिव्यक्ति का हार्दिक आभार
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