गुनगुनाने दो पीर को...
गुनगुनाने ..दो पीर को
प्यासे अधर अधीर को
नयनों के .इस नीर को
मधुर स्मृति समीर को
हाँ , गुनगुनाने दो पीर को ….
रांझे की …उस हीर को
भूखे ..इक ..फकीर को
मरते .हुए …जमीर को
प्यासे नदी के .तीर को
हाँ , गुनगुनाने दो पीर को ….
घायल नारी के चीर को
पंछी के बिखरे नीड़ को
शलभ की ..तकदीर को
घुट घुट मरती भीड़ को
हाँ , गुनगुनाने दो पीर को ….
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार
आदरणीय जितेन्द्र गीत जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार
आप पीर को गुनगुनाते आये हैं यह संतुष्टिदायी है, आदरणीय. ईश्वर सदा सहाय्य हों तथा आप सदा प्रसन्न रहें.
सादर
फिर से आपकी एक ओर सुंदर रचना पढने को मिली, बहुत अच्छी लगी. बधाई आपको आदरणीय शुशील जी
आदरणीय डॉ गोपाल नरायन श्रीवास्तव जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का और मेरी अनुपस्थिति को महसूस करने का हार्दिक आभार। मुझे पिछले २-३ माह से फ्रोजेन शोलडर का असहनीय दर्द था जिसकी वजह से मैं मंच पर सक्रिय रूप से भाग न ले सका। अभी भी थेरेपी चल रही है। अपना स्नेह बनाये रखें। धन्यवाद
आदरणीय narendrasinh chauhan जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार
बहुत दिन बाद अपनी पीर लेकर आए सरना जी i साधुवाद i
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