(कल्पना करे कि यह पत्र छोटे भाई को तब मिला जब बड़े भाई की मृत्यु हो चुकी थी i
प्रिय जी. एन.
मै तुमसे कुछ मन की बाते करना चाहता था i पर तुम नहीं आये I तुम अगर मेरे मन की हालत समझ पाते तो शायद ऐसा नहीं करते I अब तुम्हारे आने की उम्मीद मुझे नहीं जान पड़ती I इसीलिये यह पत्र लिख रहा हूँ I अगर कोई बात अनुचित लगे तो मुझे क्षमा कर देना I
मेरे भाई, आज हम जीवन के उस मोड़ पर पहुँच चुके हैं, जहा से आगे का जीवन उतना भी बाकी नहीं है जितना हम अब तक भोग आये हैं I इस दौर में हमने क्या-क्या सहन नहीं किया ? किन अनुभवों से नहीं गुजरे ? क्या त्रासदियां नहीं झेलीं ? हमने एक दूसरे से प्यार किया I हमने आपस में तकरार किया I हमने कई वहम पाले I हम में मनमुटाव हुआ I हमने धींगामुश्ती का आचरण अपनाया I हम पारिवारिक उलझनों में फंसे I सहधर्मिणी के छाया प्रभावो को ग्रहण किया और एक आम और निरीह आदमी की तरह निहित स्वार्थो के पीछे, ईर्ष्या-द्वेष के पीछे हमने अपने ‘मनुष्य’ का बलिदान कर दिया I हम भाई होकर भी भाई नहीं रहे I हम एक ही खून के कतरे होकर छिटके रहे, छितरे रहे I हम इस धरती पर पशुओ की भांति एक दूसरे को सींग दिखाते रहे और दूर से कायरो की भांति झूठी ललकार का दंभ भरते रहे I
हमने इस विकृत मानसिकता से उठकर कभी अपने आपको टटोला नहीं I कभी हमने आत्म मंथन नहीं किया I कभी हमने अपने मानसिक कलुष को धोकर उससे पीछे के शैशव अथवा किशोर-काल के पवित्र ह्रदय को पुनर्जीवित नहीं किया I क्यों नहीं किया ----? केवल इसलिए कि हम एक आम आदमी की सतह से ऊपर उठ ही नहीं सके I हमने अपने आपको उदात्त नहीं बनाया I हमारी आत्मा प्रखर नहीं हुयी I
हम अपने चरित्र को उत्कर्ष नहीं दे सके और सदा सह-धर्मिणी की इन्गिति पर चलते रहे मानो हमारी अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता और सोच नहीं थी या कोई अपना निर्दिष्ट धर्म नहीं था I
ऐसा क्यों मेरे भाई --- ? क्या हम वह नहीं हैं जो आज से पच्चीस या तीस वर्ष पहले थे ? क्या हमने एक दूसरे के प्रति ऐसा जघन्य घात कर डाला है जिसकी इस जीवन में न कोई भरपाई है और न क्षमा ? या फिर हमारी आत्मा इतनी मर चुकी है कि उसमे कोमल-कान्त एवं कमनीय विचारो या भावो का एहसास तक बाकी नहीं बचा है I मै ऐसा इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कि मै कोई दूध का धोया हूँ I मनुष्य को जन्म से जो स्वाभाविक वृत्तियाँ मिलती , वह मुझमे भी वैसी ही हैं I ईर्ष्या –द्वेष, माया –मोह, मानापमान , हर्ष-विषाद एवं सभी संचारी, व्यभिचारी भावानुभाव मेरे अन्दर भी है और मै उनके व्यापक प्रभाव से मुक्त नहीं हूँ I किन्तु इनमे एक संतुलन बनाये रखने की अपेक्षा मानव प्रजाति से हमेशा की जाती है I जिसमे सद्वृत्तियो का आग्रह अधिक होता है I वही सत्पुरुष कहलाता है i इसके विपरीत कुप्रवृत्तियो के आग्रही कभी भी समादर पाने के अधिकारी नहीं होते I अगर हम एक दूसरे का विश्लेषण करे तो शायद हम यह पायेंगे कि हमारी सद्वृत्तियाँ इतनी कमजोर नहीं हैं कि हम एक दूसरे को सहन न कर सकें I किन्त आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने आत्माभिमान से ऊंचे उठें I हम प्रेम और विश्वास की ज्योति जगाएं तथा अपनी कुप्रव्रित्तियों पर प्रभावी अंकुश लगायें I
जी. एन. भैय्या , तुम्हे यह सब उपदेश जैसा लगा होगा I पर सच्चाई यही है कि जीवन के इन अंतिम दिनो में मेरे अन्दर जो भाव तेजी से घुमड़ते है मैं उन्ही को शब्दों का जामा पहनने की कोशिश कर रहा हूँ I आज चाहे हम मिले या न मिले I बात करे या न करे I मन में पवित्र भाव रखे या न रखे I मगर संसार हमारी पहचान भाईयो के रूप में ही करेगा I भाई से भाई घात भी करते है I पर इससे वह सनातन रिश्ता नहीं टूटता जिसे हमने नहीं ईश्वर ने बनाया है I हम भाई अपने प्रयास से नहीं बने है I हमें भाई बनाकर परमात्मा ने भेजा है I विडंबना यह है कि जो रिश्ते हम यहाँ दुनिया में खुद बनाते हैं, उसमे जीने का प्रयास हम प्राण-पण से करते हैं और अपना जीवन तक मिटा देते हैं I परन्तु जो रिश्ते हंमे ईश्वर ने दिए है ,हम उनका निर्वाह तक नहीं कर पाते I क्या यह हमारी नास्तिकता नहीं है ? क्या यह ईश्वर के प्रति हमारा विद्रोह नहीं है ? और यदि है तो हमें अशरफुल मखलूकात (जीवधारियो में श्रेष्ठ ) कहलाने का क्या हक़ है ?
माता-पिता ,भाई –बहन और बेटे तथा बेटियां I यही ता ईश्वर प्रदत्त रिश्तो की सीमायें हैं I सौभाग्य से हम इन्ही रिश्तो की एक डोर में बंधे हैं I इसके बावजूद हममें पार्थक्य है, मतभेद है, अलगाव है I हम एक दूसरे से अभिन्न नहीं हैं I अब मेरे जीवन में कुछ ही क्षीण अंश बाकी रह गए हैं, मेरे भाई ! यह वह समय है जब हमारे दंभ और पुरुषार्थ का समय समाप्त हो चुका है I आने वाले समय में हम अपनी चर्यायो के प्रति आत्म निर्भर रह पायेंगे या नहीं, यह कहना भी कठिन है I हमें अपनी शरीरी आवश्यकताओ तक के लिय अपनी संतानों पर निर्भर रहना पड़ सकता है I ऐसे में अपने पिछले जीवन के पृष्ठों का सिंहावलोकन करते हुए हमें आगे का मार्ग तय करना है I क्या यह नहीं हो सकता कि हम समरसता का एक नया वातावरण बनाये ? हम अपनी सांसारिक कटुता को भुलाएँ I हम फिर उतने ही निश्छल और सहज हो जाएँ जितना हम अपने बचपन में थे I यदि हम ऐसा कर सकते है तो मेरे भाई ! आओ, तुम्हारा यह भाई कब से तुम्हारी बाट जोह रहा है I मुझे अपने से छोटा समझते हो तो मै क्षम्य हूँ I यदि बड़ा समझते हो तो कहना मानो I आओ मुझे स्वीकार करो I यह रिश्ता तुम्हे जीवन में फिर दोबारा कभी नहीं मिलेगा --------I
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
महनीया
आपका समर्थन पाकर रचना की सार्थकता भास्वर हुयी है i
आमोद जी
मै चाहता था इस पत्र को हर भाई पढ़े i पर चलिये i आपने पढा i पसंद किया i लेखन कर्म सार्थक लगा i
प्रिय आशुतोष जी
आपको पत्र पसंद आया तो लिखना सार्थक लगा i
आदरणीय मित्र
आपके स्नेह को प्रनाम i
आदरणीय "गोपाल सर" मार्मिकता भरा पत्र पढ़कर बहुत कुछ स्मृति पटल पर वापस आ गया... धन्यवाद ... सादर ॥
आदरणीय गोपाल सर ..यह पत्र तो लोक कल्याणकारी पत्र है ..काश सब इसमें छुपे गूढ़ तत्व को समझ सकें ..आपके बिचारों से मैं बिलकुल सहमत हूँ ..पर हाय रे इंसान और इंसानी बिबसता ..इस लेख को मैंने दो तीन बार पढ़ा ..इससे प्रभवित हूँ ..आत्मसात की कोशिस करूंगा ..इस शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर
बहुत मार्मिक एवम सत्य , आपको ढेरों बधाईयां इस लेखन के लिए..
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , बहुत मार्मिक लेकिन सत्य है , जीवन के अंतिम क्षणों में सबके यही विचार चलने हैं । काश वक़्त रहते लोग सँभल पाते , किसी बड़े भाई को ऐसा प्त्र नही लिखना पड़ता !! इस पत्र के लिये आपको बधाई भाई जी !!
लडीवाला जी
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद i
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