1222/ 1222/ 1222
बहुत सोचा तुम्हें आखिर भुला दूँ मैं
जले लौ तो उसे खुद ही हवा दूँ मैं
उदासी का सबब गर पूछ लें मुझसे
अज़ीयत के निशाँ उनको दिखा दूँ मैं
कभी सागर कभी सहरा कभी जंगल
यूँ क्या-क्या बेख़याली में बना दूँ मैं
हक़ीकत तो बदल सकती नहीं फिर क्यों
गुजश्ता उन पलों को अब सदा दूँ मैं
तुम्हारी कुर्बतों के छाँटकर लम्हे
किताबों का हर इक पन्ना सजा दूँ मैं
इन आँखों से टपकती बून्दों को इक-इक
समंदर में गिरा कर फिर बहा दूँ मैं
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय विजय निकोर सर आप जैसे वरिष्ठ सदस्यों की सराहना से बहुत हौसला मिलता है आपका हार्दिक आभार
आदरणीय सुशील सरना सर रचना की सराहना एवं इज़्ज़तअफ़्ज़ाई के लिये मैं आपका तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ
behtareen---
कभी सागर कभी सहरा कभी जंगल
यूँ क्या-क्या बेख़याली में बना दूँ मैं
हक़ीकत तो बदल सकती नहीं फिर क्यों
गुजश्ता उन पलों को अब सदा दूँ मैं
तुम्हारी कुर्बतों के छाँटकर लम्हे
किताबों का हरिक पन्ना सजा दूँ
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बहुत सोचा तुम्हें आखिर भुला दूँ मैं
जले लौ तो उसे खुद ही हवा दूँ मैं
उदासी का सबब गर पूछ लें मुझसे
अज़ीयत के निशाँ उनको दिखा दूँ मैं//
सभी खयाल एक-से-एक बढ़ कर। दिल से दाद देता हूँ।
बहुत सोचा तुम्हें आखिर भुला दूँ मैं
जले लौ तो उसे खुद ही हवा दूँ मैं
उदासी का सबब गर पूछ लें मुझसे
अज़ीयत के निशाँ उनको दिखा दूँ मैं
गज़ब गज़ब गज़ब … नतमस्तक हूँ आपकी कलमगिरी पर आदरणीय शिज्जु शकूर साहिब … इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए इस नाचीज़ की दिली दाद कबूल फरमायें … आपकी शान में चंद लाइनें पेश है :
किस अशआर की बात करूँ
आखिर किसका लूं में नाम
हर अशआर में है महकता
मुहब्बतों से भरा पैगाम
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