थर्राहट
कुछ अजीब-सा एहसास ...
बेपहचाने कोई अनजाने
किसी के पास
इतना पास क्यूँ चला आता है
विश्वास के तथ्यों के तत्वों के पार
जीवन-स्थिति की मिट्टी के ढेर के
चट्टानी कण-कण को तोड़
निपुण मूर्तिकार-सा मिट्टी से मुग्ध
संभावनाओं की कल्पनाओं के परिदृश्य में
दे देता है परिपूर्णता का आभास ...
उस अंजित पल के तारुण्य में
सारा अंबर अपना-सा
स्नेहसिक्त ओंठ नींदों में मुस्करा देते
ज़िन्दगी फिर से झलमलाती-सी
बिना शिकायत, अचानक खूबसूरत
सुसंगत लगती
अन्तस्तल-गुहा में दुबकी-सी बैठी
पुराने गहरे धक्के की दुविधा
को अजनबी-सा अजाना करते
मंडराते ख्वाबों के प्रसारों में
हम अपनी ही आँखों में
अपने कद से ऊँचे लगने लगते हैं
परन्तु कब तक ?
उफ़ ! यह उँचाइयाँ द्वंद्वात्मक
आत्मीयता के अपरिमय आयतन में भी
आन्तरिक तंग तहखानों में उभरती
नए फोड़े के नए घाव की संभावना
अकस्मात गहन परिवर्तन की परिचित गरजन
थर्राहट
डरता है मन ...
---------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया विन्दु जी,
रचना की सराहना के लिए दिल से आभार .....
इ...त...नी लम्बी प्रतिक्रिया तो जीवन भर मेरे लिए किसी ने नहीं लिखी थी ...
सादर,
विजय
आपका आशीर्वाद मिला, मन आल्हादित हुआ।
आपके उत्साह वर्धन से रचना सार्थकता को प्राप्त हुई । हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय सौरभ जी।
//आपकी रचनाएं अपने इर्द गिर्द भावनाओं के जाल बुनती हुई चलती हैं जो पाठक को उसमे फँसाने में कामयाब हैं हर बार की तरह बेहतरीन रचना साझा की आपने//
आपके भावमय आशीर्वाद और उत्साहवर्धन के लिए आभारी हूँ।
प्रेरणा के लिए धन्यवाद, आदरणीया राजेश जी।
आदरणीय लक्ष्मण जी, रचना में निहित भाव के अनुमोदन के लिए आपका हार्दिक आभार।
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय आमोद जी।
रचना आपको अच्छी लगी, मेरा लिखना सार्थक हुआ। धन्यवाद, आदरणीय विजय जी।
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय गोपाल जी।
//हमेशा की तरह आपकी कलम की कायल हूँ .... और रहूंगी .... दिल के मर्म भावों को आपकी सोच का सागर मिल गया और कविता हो गयी .... बहुत बहुत कमाल की रचना ... बहुत बहुत नमन आपको .....//
कविता पर आपकी प्रीतिकर प्रतिक्रिया से प्रोत्साहन मिला । उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद, आदरणीया प्रियंका जी।
आत्मीयता का सच कितनी घिनौनी संभावनाओं का कारण हुआ करता है. इस ऊहपोह को अभिव्यक्त करती इस रचना-प्रवाह के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय विजय निकोर भाईसाहब.
ख़्वाबों परिकल्पनाओं की दुनिया बेहद खूब सूरत होती है जो अपने कल्पित पंखों से उड़ाकर चित्त को बहुत दूर बहुत ऊँचा ले जाती है किन्तु फिर वक़्त आता है की वो पंख वास्तविकता की नमी से गीले हो जाते हैं और हम वापस धरातल पर होते हैं बस यही जीवन है ,आपकी रचनाएं अपने इर्द गिर्द भावनाओं के जाल बुनती हुई चलती हैं जो पाठक को उसमे फँसाने में कामयाब हैं हर बार की तरह बेहतरीन रचना साझा की आपने बहुत बहुत बधाई आ० विजय निकोर जी
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