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पर यहीं पर करार सा है कुछ
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उजड़ा उजड़ा दियार सा है कुछ
पर यहीं पर करार सा है कुछ
गर्मियाँ खून में कहाँ बाक़ी
गर्म हूँ , तो बुखार सा है कुछ
खूब बोले थे खुल के, क्यूँ आखिर
बच गया फिर, उधार सा है कुछ
दिल को बेताबियाँ नहीं डसतीं
प्यार है, या कि प्यार सा है कुछ
फूल कलियों में खूब चर्चा है
अब ख़िंज़ा मे उतार सा है कुछ
टीस कहती है मुझ से रह रह के
कोई अपना ही ख़ार सा है कुछ
दोस्त, संजीदगी से मत लेना
बस कि निकला ग़ुबार सा है कुछ
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीय हरी वल्लभ भाई , यहाँ सभी सीख ही रहे हैं , ये जगह सीखने सिखाने की ही है | सराहना के लिए आपका आभारी हूँ ||
आदरणीय विजय भाई , आपकी सराहना ने मेरा उत्साह दो गुना कर दिया , हौसला अफजाई के लिए आपका शुर्किया |
आदरणीय जितेन्द्र भाई , ग़ज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिए आपका बहुत शुक्रिया ||
बस पढ़ कर सीखने का प्रयास कर रहा हूँ आदरणीय...बहुत सुन्दर शेर हैं..
वाह! क्या खूब गजल कही है आपने आदरणीय गिरिराज जी. हरेक शे'र कमाल का है.पूरी गजल पर आपको दिली बधाइयाँ
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