मेज़ के उपर सब कुछ शांत है
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बड़ी सी मेज , साफ मेजपोश
ताज़े फूलों के गुलदस्तों सजी
करीने से लगी कुर्सियाँ
अदब से बैठे हुये अदब की चर्चा मे मशगूल
सभ्यता और संस्कृति की जीती जागती मूर्तियाँ
सामाजिक बुराइयों से लड़ते जो कभी न थके
सामाजिक उन्नति के नये-नये मानक गढ़ते
सब कुछ कितन भला लग रहा है , मेज के ऊपर
सामान्यतया क़रीब से देखने में
लेकिन ,
जो दूर बैठा है उस मेज से
देख सकता है ,सब कुछ सही सही
वो देख पाता है
मेज के नीचे की सच्चाइयाँ भी, क्योंकि
सही अवलोकन के लिये निश्चित दूरी भी ज़रूरी है
वो देख सकता है ,एक दूसरे से अड़ते – भिड़ते पैर
कुर्सियों से गिराने के होते प्रयास
पैरों के नाखूनों से दूसरे के खरोंचे जाते पैर
पिंडलियों तक लहूलुहान कई पाँव
और निर्विकार से गंभीर चर्चा मे गुम हुए कुछ चेहरे
क्योंकि मर्यादा ज़रूरी है
जानते सब हैं , सब कुछ हैं
पर कहता कोई नहीं ,
ऊपर सब कुछ मर्यादित है
शायद उत्कट अभिलाषायें आवाज़ें छीन लेतीं हैं , केवल आवाजें ! बस !
इसीलिये मेज़ के ऊपर सब कुछ शांत है
अच्छा है सब कुछ
लेकिन कब तक ?
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय मिश्र भाई , आपकी उपस्थिति ने मेरी रचना का मान और मेरा उत्साह दोनो बढ़ा दिया ॥ आपकी सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद भाई , रचना के अनुमोदन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
जब तक सामाजिक स्तर पर अन्दर और बाहर या ऊपर ओर नीचे के कर्त्यों का अंतर चलता रहेगा तब तक संस्कारित लोग
इस तथाकथित शान्ति और विकास से विचलित होते रहेंगे | सुन्दर रचना हुई है | हार्दिक बधाई श्री गिरिराज भंडारी जी |
आदरणीय लक्ष्मण भाई , आपका आभार ।
आदरनीय सौरभ भाई , आपकी प्रतिक्रिया से लगा कि कुछ सार्थक कह पाया, स्नेह बनाये रखें , सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।
बहुत उम्दा
जिन आँखों ने मेज़ के ऊपर, मेज़ के नीचे का सारा का सारा मंजर देख रखा है, वो मेज़ के ऊपर व्यापी हुई शांति के महाझूठ से विचलित न होंगी तो और कौन होगा ? लेकिन यह रचनाकार का दायित्व है कि वह आँखों को और अधिक विचलित होने से रोके, उन्हें भरोसे में ले. कि, जो दिखता है और जो हो रही हैं, वो क्रियाएँ हैं. उन क्रियाओं की प्रतिक्रियाएँ किसी चर्चा ही नहीं पूरे के पूरे मेज़ को ही उलट दिया करती है.
बिम्बों का इतना सुन्दर निर्वहन हुआ है कि रचना सहज ही स्वीकृत होती चली जाती है. इस उत्कृष्ट रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय
सादर
आदरनीया महिमा श्री जी , रचना की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥
जो दूर बैठा है उस मेज से
देख सकता है ,सब कुछ सही सही
वो देख पाता है
मेज के नीचे की सच्चाइयाँ भी, क्योंकि
सही अवलोकन के लिये निश्चित दूरी भी ज़रूरी है
वो देख सकता है ,एक दूसरे से अड़ते – भिड़ते पैर
कुर्सियों से गिराने के होते प्रयास
पैर के नाखूनों से दूसरे के खरोंचे जाते पैर
पिंडलियों तक लहूलुहान कई पाँव
और निर्विकार से गंभीर चर्चा मे गुम कुछ चेहरे...बढ़िया बहुत -२ बधाई ...आपको सादर
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