दृष्टि मिलन के प्रथम पर्व में
दृप्त वासना नभ छू लेती
पागलमन को बहलाता सा
जग कहता नैसर्गिक सुख है I
क्या निसर्ग सम्भूत विश्व में
क्या स्वाभाविक और सरल क्या
वाग्जाल के छिन्न आवरण
में मनुष्य की दुर्बलता है I
बुद्धि दया की भीख मांगती
ह्रदय उपेक्षा से हंस देता
मानव ! तेरी दुर्बलता का
इस जग में उपचार नहीं है I
संस्कार है गत जन्मो का
या फिर है अँधा आकर्षण
छल भी नहीं न है सम्मोहन
मनुज हृदय का पाप प्रेम है I
[मौलिक व् अप्रकाशित ]
Comment
बहुत ही सुंदर रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय डा.गोपाल जी
संस्कार है गत जन्मो का
या फिर है अँधा आकर्षण
छल भी नहीं न है सम्मोहन
मनुज हृदय का पाप प्रेम है I
अनेक लहजों में परिभाषित प्रेम - अनूठी रचना!
सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय।हार्दिक बधाई आपको। । सादर
महनीया
आभार प्रकट करता हूँ I
शिज्जू भाई
आपकी साहित्यिक समझ उच्चकोटि की है i आपसे संस्तुति मिलना ह्रदय को सुकून देता है I
डा0 विजय जी
आपको प्रणाम एवं आपका आभार i
आदरणीय सन्तिलाल जी
आपकी टीप ही इस सत्य का प्रमाण है की आप कविता के मर्म तक गए हैं i आपका शत-शत आभार i
अनुपम .......सादर बधाई
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर बहुत सुंदर रचना है, बिम्बों व प्रतीकों का सहज प्रयोग एवं रवानी ने रचना में जान डाल दी है बहुत बहुत बधाई आपको
सादर,
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