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मुझको तन्हाई अक्सर बुलाती रही- ग़ज़ल

212/ 212/ 212/ 212

मुझको तन्हाई अक्सर बुलाती रही

बारहा पास आकर सताती रही

 

क्या कहूँ आँसुओं का सबब मैं तुझे

तल्खी तेरी ज़बाँ की रुलाती रही

 

रात भर मैं हवा के मुकाबिल खड़ा

लौ जलाता रहा वो बुझाती रही            

 

आइना अक्स मेरा बदलता रहा

ज़िन्दगी खुद से मुझको छुपाती रही

 

मैं न समझा कभी सच यही था मगर

ये ख़िज़ाँ राह मेरी बनाती रही   

 

बादबाँ खुल गये चल पड़ी नाव भी

मेरी किस्मत मुझे यूँ चलाती रही

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Meena Pathak on August 2, 2014 at 3:11pm

बहुत खूब ..बधाई आदरणीय शिज्जू जी 

Comment by savitamishra on August 2, 2014 at 2:22pm

bahut sundar

Comment by Ravi Prabhakar on August 2, 2014 at 11:25am

/रात भर मैं हवा के मुकाबिल खड़ा
लौ जलाता रहा वो बुझाती रही /
क्या बात है !
व्यक्तिगत तौर पर मैं बहुत साकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति हूं और साकारात्मक सोच रखने वालों को बहुत पसंद करता हूं। पता नहीं क्यों अक्सर लेखक साकारात्मक लिखने से परहेज करते है, उन्हे ऐसा क्यों लगता है कि परिवर्तन नहीं होगा जबकि परिवर्तन तो कुदरत का अटल नियम है। निराश होने से काम नहीं चलेगा, हमें साकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ना होगा और रात भर हवा के मुकाबिल खड़ना ही होगा ताकि आशा की लौ जलती रहे। साकारात्मक सोच को सलाम! बधाई स्वीकार करे। 

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