सुरेश रात-दिन कितनी भी शरीर-तोड़ मेहनत कर ले, अपनी पत्नि रजनी और दोनों बच्चों के खर्च के साथ-साथ मोबाईल, मोटर-साइकिल,मकान का किराया सब कुछ वहन नहीं कर सकता. अब पेट काटकर धीरे-धीरे अपना घर बनाना शुरू तो कर दिया पर कभी सीमेंट ख़त्म, तो कभी लोहा.
लेकिन.. जब से सुरेश से कहीं ज्यादा कमाने वाले मित्र, अशोक का उसके यहाँ आना-जाना शुरू हुआ है, तब से घर का काम दिन दोगुना -रात चौगुना चल रहा है. आजकल तो सुरेश अपने घर के बंद दरवाजे के बाहर अशोक के जूतों को देख, अपने नए बन रहे घर कि ओर चला जाता है..
जितेन्द्र 'गीत'
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
//अगर मुझसे इस सच को लघुकथा का रूप देकर, मंच पर साझा करने में कोई अभद्रता हुई है तो मैं शर्मिंदा हूँ. आपके मार्गदर्शन का ह्रदय से आभारी हूँ //
क्या जितेन्द्रजी, आप भी ?
भाई, मैं ऐसी प्रतिक्रियाएँ तब देता हूँ जब प्रस्तुति के तथ्य और शिल्प पर कहने के लिए कुछ नहीं होता. सीधा कथ्य पर चर्चा ! और, सही कहिये तो कथ्य ने झिझोड़ दिया.
खुश रहिये और मेहनत करते चलिये. अब आप पर महती दायित्व है.
शुभ-शुभ
आदरणीय जितेन्द्र भाई , दिल और दिमाग दोनों पर बहुत करारा चोट किया है आपने ! सोचने को विवश करती ,सुन्दर लघु कथा के लिये बधाइयाँ ।
प्रिय मित्रवर,
प्रस्तुत लघुकथा का सूक्ष्म एवं संजीदा व्यंग्य पाठक की मानसिकता में किसी महीन कांटे की चुभन के अहसास जैसा है जो उसे अंदर तक झंझोर देता है। यही सूक्ष्म एवं संजीदा व्यंग्य पाठक को लघुकथा पढ़ने के बाद बहुत कुछ सोचने के लिए विवश करता है। आपकी लघुकथाओं की धार बहुत तीखी होती जा रही है। भविष्य के लिए शुभकामनाएं।
झकझोरती रचना ...कहा जा रहे है हम ..नींव ही नये मकान की घटिया मानसिकता संस्कार पर रखी गयी है तो मंजिल सुकून देने वाली कैसे बन सकती है
माफ़ कीजियेगा आदरणीय सोरभ जी, मैंने उसी समाज में से इस घिनोने सच को उठा लाया हूँ. घिन तो मुझे भी आई परन्तु क्या करता...? सच तो सच ही है न.
अगर मुझसे इस सच को लघुकथा का रूप देकर, मंच पर साझा करने में कोई अभद्रता हुई है तो मैं शर्मिंदा हूँ. आपके मार्गदर्शन का ह्रदय से आभारी हूँ
सादर!
क्या जी !? हम सभी किस समाज के सदस्य हैं !?? .. घिन आती है, है न ?
इस कथा को कैसे शब्द मिले हैं !
शुभ-शुभ
आदरणीया महिमा जी. लघुकथा पर आपकी सराहना से बहुत ख़ुशी मिली, प्रतिक्रिया हेतु आपका आभारी हूँ.
आज के समय में अपने सपनो और सुखों के लिए शायद किसी-किसी को संस्कार और नैतिकता के बारे में सोचने का भी वक्त नही है. बहुत जल्दबाजी में लगा है आज का इंसान.
सादर!
आदरणीय शुभ्रांशु जी. लघुकथा पर जब तक आपका अनुमोदन न मिले, बहुत अधूरापन सा लगता है. :-)))
आपके विचार से मैं सहमत हूँ. आपका ह्रदय से आभार
सादर!
जी, आदरणीय प्रदीप जी. आज के समय में किसी भी बात या घटना को नही नकारा जा सकता.लघुकथा पर आपकी उपस्थिति से बहुत मनोबल मिला, आपका ह्रदय से आभारी हूँ
सादर!
आदरणीया राजेश दीदी, रचना पर आपकी उपस्थिति हेतु आपका ह्रदय से आभार. इंसान गर्त में गिरे या ना गिरे, यहाँ शायद हम किसी पर दोष मढ़े या न मढ़े. किन्तु आज का समय भी तो अपेक्षाओं पर ही टिका हुआ है.
सादर!
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