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अगम है प्रेम पारावार फिर भी  प्रिये पतवार लेकर आ गया हूँ I

विकल मन में जलधि के ज्वार  फूटे

तार      संयम       अनेको     बार    टूटे

प्राण     आकंठ      होकर       थरथराये

नेह    के   बंधन   सजीले   थे   न    छूटे

प्यास  की  वासना  उद्दाम ऐसी  नयन  सागर सहेजे आ गया हूँ I

 

नयन   ने    काव्य  करुणा  के   रचे  हैं

कौन  से    पाठ्यक्रम    इससे    बचे   हैं

किसी   कवि   ने   इन्हें जब गुनगुनाया

लाज     ने    तोड़      डाले    सींकचे    हैं

गीत    संसार  को ऐसे  न भाते   तरह  जैसे  कि मै सरसा गया हूँ I

न     जाने      कौन     सा उन्माद है यह

चरम    है    और      अनहद   नाद है   यह

रूप   में       रमना    रमकर   राम    होना I

प्रकृति  का  शास्वात   रस्वाद  है    यह       

चाह थी नील- नभ में श्याम हो  लूँ राह मे अभ्र से टकरा  गया हूँ I

अगम है  प्रेम पारावार  फिर  भी  प्रिये पतवार लेकर आ गया हूँ I

 

 

 

(मू ल व्  अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 12, 2014 at 9:53am

मन को छू जाते भावों को बहुत सुंदर शब्द मिले. बहुत -२ बधाई आदरणीय डा.गोपाल जी

Comment by vijay nikore on August 11, 2014 at 8:54pm

//चाह थी नील- नभ में श्याम हो  लूँ राह मे अभ्र से टकरा  गया हूँ I

अगम है  प्रेम पारावार  फिर  भी  प्रिये पतवार लेकर आ गया हूँ I//

बहुत ही सुन्दर भाव हैं आपके गीत के... शब्द  लय के संग कानों में गूंज रहे हैं। हार्दिक बधाई, आदरणीय गोपाल जी।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 11, 2014 at 5:12pm

सविता जी

आपका आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 11, 2014 at 5:12pm

आदरणीय सौरभ जी

आपके सुझाव का ह्रदय से स्वागत करता हूँ शब्द रसवाद  ही था टंकण त्रुटि के कारण रस्वाद हो गया था i  आभार आदरणीय i

Comment by savitamishra on August 11, 2014 at 3:36pm

बहुत ही सुन्दर _/\_


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2014 at 2:34pm

अनेकों शब्द का थोथापन जान-समझ चुके लोगों के लिए यह शब्द हर स्तर पर त्याज्य है, आदरणीय. कविता में रसवाद न हो कर रस्वाद  है, जो मुझे रसास्वादन का अप्रभंश लगा.

सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 11, 2014 at 11:25am

कल्पना जी

आपने पसंद किया आभारी हूँ i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 11, 2014 at 11:11am

आदरणीय विजय जी

आभार प्रकट करता हूँ i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 11, 2014 at 11:09am

आदरणीय सौरभ जी

मेरे शोध गुरु डा ० रामेन्द्र पाण्डेय जी ने आज से तीस वर्ष पूर्व मुझे सिखाया था कि अनेक स्वयं बहुबचन  है तो फिर अनेको क्यों i तबसे मै अनेको शब्दों का प्रयोग नहीं करता और मेरे लेखो में आपने देखा भी होगा i पर कविता मे मै समझता था शायद यह स्वीकार्य हो और जहाँ मैंने प्रयोग  किया है वहां इससे  बेहतर संयोजन मिल नहीं रहा  था i जो भी हो यह शब्द गलत तो है ही i  रसवाद  का अर्थ तो सामान्य रस चर्चा या रस रंग की बातें ही हैं  i  सादर आपका आभार i  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2014 at 3:37am

एक-पंक्ति मुखड़े की तुकान्तता और प्रथम आधार-पंक्ति की तुकान्तता आगे की आधार-पंक्तियों की तुकान्तता के प्रति भ्रम पैदा करती है, आदरणीय गोपाल नारायनजी..  

विकल मन में जलधि के ज्वार फूटे
तार संयम अनेको बार टूटे  ................अनेकों एक अशुद्ध शब्द है. अनेक स्वयं बहुवचन है.
प्राण आकंठ होकर थरथराये
नेह के बंधन सजीले थे न छूटे
प्यास की वासना उद्दाम ऐसी नयन सागर सहेजे आ गया हूँ I

नयन ने काव्य करुणा के रचे हैं
कौन से पाठ्यक्रम इससे बचे हैं
किसी कवि ने इन्हें जब गुनगुनाया
लाज ने तोड़ डाले सींकचे हैं
गीत संसार को ऐसे न भाते तरह जैसे कि मै सरसा गया हूँ I

उपरोक्त बन्द सहज किन्तु भाव से अत्यंत गहन है. मन प्रसन्न हो गया, आदरणीय.

न जाने कौन सा उन्माद है यह
चरम है और अनहद नाद है यह
रूप में रमना रमकर राम होना ...........  निस्संदेह सहस्र नाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने .. !!
प्रकृति का शास्वात रस्वाद है यह .... ... शाश्वत सही शब्द है तथा रस्वाद क्या रसास्वाद ही है क्या ?   
चाह थी नील-नभ में श्याम हो लूँ राह मे अभ्र से टकरा गया हूँ ... . बहुत सुन्दर ! प्रेय से प्रभावित मन का कितना सुन्दर इंगित है ! वाह वाह !

इस संभवनापूरित नवगीत के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय

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