२१२२ २१२२ २१२२ २१२
वो कहें सागर में मिलकर आज दरिया खो गया
हम कहें सागर से दरिया मिल के सागर हो गया
सोच कुछ तेरी जुदा है सोच कुछ मेरी अलग
सोचिये सोचों का अंतर आज कैसा हो गया
करते दंगों पे सियासत रहनुमा इस देश के
देख कर अपनों की लाशें नन्हा बचपन रो गया
दर्द पहले ही हज़ारों जिन्दगी में दोस्तों
फिर नया ये दर्द क्यूँ जग जिन्दगी में बो गया
माँ रही मशगूल जश्नों में यूं सारी रात ही
चूस हाथों के अंगूठे नन्हा बचपन सो गया
दर्द जब जब भी बढा है दिल हुआ बेचैन है
ढाल शेरो में ग़मों को दिल ये ग़ज़लें पो गया
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय हरिवल्लभ जी रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए दिल से धन्यवाद saadar
बहुत सुन्दर भावपूर्ण गज़ल ..
"माँ रही मशगूल जश्नों में यूं सारी रात ही
चूस हाथों के अंगूठे नन्हा बचपन सो गया"....बहुत प्रभावी...वाह.
आदरणीय राकेएश जी , भुवन जी , आदरणीया महिमा जी आप के इन स्नेहिल शब्दों के लिए दिल से धन्यवाद सादर
आदरनीय गोपाल सर ..आपका स्नहे और मार्गदर्शन हम जैसे सीखने वालों के लिए प्रेरणा मंत्र का काम करता है ये स्नेह यूं ही मिलता रहे कामना के साथ सादर
आदरणीय जीतेन्द्र जी रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय संतलाल सर ..बस ऐसे ही आप सभी विद्वतजनो का मार्गदर्शन मिलता रहे ऐसी कामना के साथ सादर
आदरणीय डॉ. आशुतोष मिश्र जी,
अच्छी ग़ज़ल और ख़ास तौर से इस शेर की नवीनता आकृष्ट करती है--
"माँ रही मशगूल जश्नों में यूं सारी रात ही
चूस हाथों के अंगूठे नन्हा बचपन सो गया"
.. हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
बेहतरीन गजल प्रस्तुति आदरणीय डा.आशुतोष जी. बहुत-२ बधाई आपको
आशुतोष जी
बहुत अच्छी गजल कही आपने i
माँ रही मशगूल जश्नों में यूं सारी रात ही
चूस हाथों के अंगूठे नन्हा बचपन सो गया
आदरणीय डॉ. आशुतोष मिश्रा जी,
इस शानदार ग़ज़ल के लिए बधाई.
सादर,
डॉ. राकेश जोशी
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