चाँद बढ़ता रहा...... चाँद घटता रहा.
यूँ कलेजा हमारा ........धड़कता रहा.
--
उलझने रात सी ....क्यों पसरती रहीं.
वो दरम्याँ बदलियों .... भटकता रहा.
--
टिमटिमाता सितारा रहा... भोर तक.
शब सरे आसमा को.... खटकता रहा.
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उस हवेली पे जलता था... कोई दिया
बन पतंगा सा उस पे.... फटकता रहा.
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चन्द साँसें अभी हैं...... बचीं रात की.
कोई सपनों में फिर भी. अटकता रहा.
--
उस झरोखे से दी थी..... किसी ने सदा.
सर्प रस्सी से तुलसी .......लटकता रहा.
**हरिवल्लभ शर्मा दि.05.09.2014
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
बहुत आभार आदरणीय ram shromani pathak जी आपकी स्नेहिल टीप का स्वागत.स्नेह बनाये रखे.
आदरणीय Akhand Gahmari साहब ग़ज़ल पर आपका स्नेह मिला हार्दिक आभार.
आदरणीय Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Akul' साहब बहुत आभार आपने एक भाव पर स्पष्टीकरण चाहा है...आदरणीय,.महाकवि तुलसीदास जी का अपनी प्रेयसी पत्नि के मायके जाने पर बाढ़ में नदी पार कर...खिड़की से लटकते सर्प को पकड़ कर चढ़ कर जाने की किबदंती से प्रेरित होकर यह पंक्तियाँ ज़ेहन में आयीं हैं...मन तुलसी सा खिड़की पर लटकने का भाव है..सादर.
चन्द साँसें अभी हैं...... बचीं रात की.
कोई सपनों में फिर भी. अटकता रहा-------------वाह बहुत खूब
उस झरोखे से दी थी..... किसी ने सदा.
सर्प रस्सी से तुलसी .......लटकता रहा.
थोड़ा खटक रहा है। ग़ज़ल की बारीकियाँ नहीं जानता, किंतु भाव नहीं समझ पा रहा हूँ ।
आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब आपने अमूल्य समय देकर ग़ज़ल पर प्रतिसाद दिया, हार्दिक आभार आपका सादर.
आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी आपकी स्नेहिल टीप ने हौसला बढाया है हार्दिक आभार आपका.
आ. हरि वल्लभ भाई , सुन्दर ग़ज़ल हुई है , आपको बधाइयाँ |
आदरणीय हरिवल्लभ जी .इस ग़ज़ल पर आपको हार्दिक बधाई ..सादर
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