संताप और क्षोभ
इनके मध्य नैराश्य की नदी बहती है, जिसका पानी लाल है.
जगत-व्यवहार उग आये द्वीपों-सा अपनी उपस्थिति जताते हैं
यही तो इस नदी की हताशा है
कि, वह बहुत गहरी नहीं बही अभी
या, नहीं हो पायी ’आत्मरत’ गहरी, कई अर्थों में.
यह तो नैराश्य के नंगेपन को अभी और.. अभी और..
वीभत्स होते देखना चाहती है.
जीवन को निर्णय लेने में ऊहापोह बार-बार तंग करने लगे
तो यह जीवन नहीं मृत्यु की तात्कालिक विवशता है
जिसे जीतना ही है
घात लगाये तेंदुए की तरह..
तेंदुए का बार-बार आना कोई अच्छा संभव नहीं
घात लगाने की जगह वह बेलाग होता चला जाता है
कसी मुट्ठियों में चाकू थामे दुराग्रही मतावलम्बियों की तरह !
संताप और क्षोभ के किनारे और बँधते जाते हैं फिर
नैराश्य की नदी और सीमांकित होती जाती है फिर
ऐसे में जगत-व्यवहार के द्वीपों का यहाँ-वहाँ जीवित रहना
नदी के लिए हताशा ही तो है !
बन्द करो ढूँढना संभावनाएँ.. सम्मिलन की..
मत पीटो नगाड़े..
थूर दो बाँसुरियों के मुँह..
मान लो.. कि रक्त सने होंठों से चूमा जाना विह्वल प्रेम का पर्याय है..
मांसल सहभोग के पहले की ऐंद्रिक-केलि है
यही हेतु है !
जगत के शामियाने में नैराश्य का कैबरे हो रहा है
जिसका मंच संताप और क्षोभ के उद्भावों ने सजाया है
ऐंद्रिकता का आह्वान है-- बाढ़ !
...जगत-व्यवहारों के द्वीपों को आप्लावित कर मिटाना है...
नदी को आश्वस्ति है
वो बहेगी.. गहरे-गहरे बहेगी..
जिसका पानी लाल है..
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-सौरभ
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
रचना को मान देने के लिए सुधी पाठकों का आभार
सादर
अनन्य सहयोगी भाई अभिनव अरुणजी, साहित्यिक विन्दुओं के सापेक्ष आपकी परिष्कृत सोच के हम सदा से कायल रहे हैं और इसी कारण आपकी रचनाओं के मुखर प्रशंसक भी.
आपसे अपनी प्रस्तुति पर अनुमोदन पाना मेरे लिए परम संतुष्टि कारण हुआ है. विशेषकर इस तथ्य के सापेक्ष कि यह रचना किसी विचारधारा विशेष पर अत्यंत मुखर है.
विश्वास है, आपकी सुधी दृष्टि की अनुकम्पा मेरी अन्य रचनाओं पर भी होगी.
शुभ-शुभ
महिमा श्री, किसी रचना की सार्थकता इसी में है कि कितने पाठक उससे न केवल जुड़ पाते हैं बल्कि उस रचना से अपने मंतव्यों का कैसे सामंजस्य बिठा पाते हैं. मेरी प्रस्तुत रचना इस मामले में सौभाग्यशाली प्रतीत हो रही है. इसके पाठकों में से अधिकांश ने इसके परिप्रेक्ष्य में खुल कर अपने मंतव्य प्रस्तुत किये हैं. संतुष्टि की बात यह है कि सारे मंतव्य रचना के विन्दुओं के सापेक्ष ही हैं !
जिस वृहद विवेचना के द्वारा आपने अपने विन्दु रखे हैं, वह एक रचनाकार के तौर पर मेरे सामने एक सुखद आश्चर्य के रूप में सामने आया है. प्रसन्नता की बात है कि यह चकित भी करता है कि समझ कितनी प्रभावी है !
भारतीय ही नहीं किसी भूभाग के जन और उसकी प्रवृतियों के अनुरूप उसके अतीत तथा व्यतीत को नकार कर कोई विचारधारा सहज कार्य नहीं कर सकती. सर्वोपरि तो तब और, जब वह विचारधारा आयातित हो. क्यों कि भारत एक देश भले नया है किन्तु यह राष्ट्र के तौर अत्यंत पुरानी इकाई है. इतनी पुरानी कि इसके समकक्ष अन्य देश आ ही नहीं सकते. उस हिसाब से इसके जन-मानस को किसी साँचे में फिट करने की कोई कवायद कितनी छिछली होगी यह समझने की नहीं स्वीकारने की बात होगी.
किसी भू-भाग की जीवन-शैली या परम्पराओं को एक झटके में नकार देना या उनके मूल को जाने बिना सतही घोषित कर देना अत्यंत ओछी मानसिकता का प्रतीक है. जैसा कि ऐसे आयातित मंतव्य अक्सर किया करते हैं. जन-भावनाओं की बात करना और उनके दुखों और समस्याओं को उठाना एक बात है. यह पुरातन काल से होता रहा है और जब तक मानव धरती पर है, आगे भी होता रहेगा. क्यों कि मानवीय दुख कोई स्थावर भाव नहीं हैं, बल्कि सापेक्ष हुआ करते हैं. किन्तु, इसकी ओट में किसी वाद को आरोपित करना अपराध है.
आपके विन्दुओं से रचना की पंक्तियाँ एकसार हो पारही हैं. यह आश्वस्तिकारक है.
शुभ-शुभ
घनीभूत भावों संकेतों संदेशों बिम्बों प्रतिबिम्बों की श्रेष्ठ कविता ....मुक्तिबोध याद हो आये ..बार बार ...साधुवाद और अभिवादन ...अभिनन्दन ...ऐसी कवितायेँ हैं तो श्रम और कर्म की प्रतिष्ठा है .उत्कृष्ट रचना के लिए नमन वंदन !!
बंगाल में लम्बे समय तक इनका राजनैतिक वर्चस्व कायम रहा है ...इस लिए मैंने लिखा कई जगह ये सफल रहे हैं .
भारत की भूमि और और भारतीय जनमानस इतना उदार और सहनशील है कि जो भी यहाँ आता है यहाँ की सांस्कृतिक और व्यवहारिक उदारता को हमारी कमजोरी समझ लेता है फिर शुरू होता है ..वैचारिक , राजनैतिक और सांस्कृतिकी वर्चस्व और दमन का खूनी खेल ..,.कुछ ऐसी ही मंशा के साथ वामपंथियों का भारत में खेल शरू हुआ ..कालमार्क के दास कैपिटल को बांहों में दबाये , लाल झंडे तले भारत को भी शोषण और शोषित वर्ग समूह में बाट कर ऐसा व्यूह रचा कि जिसकी ज़द में भारत में भी वर्ग संघर्ष का वही खूनी खेल शुरू हुआ.. जो थमने का नाम नहीं ले रहा है .. खूनी लाल नदी को बिम्ब बना कर आदरणीय जब कहते है.
इनके मध्य नैराश्य की नदी बहती है, जिसका पानी लाल है..... ... ये उन वामपंथियों के तरफ ही इशारा करते हैं ..
यही तो इस नदी की हताशा है
कि, वह बहुत गहरी नहीं बही अभी
या, नहीं हो पायी ’आत्मरत’ गहरी, कई अर्थों में.
यह तो नैराश्य के नंगेपन को अभी और.. अभी और..
वीभत्स होते देखना चाहती है..... ........ सच तो है पर इनके झंडे को और लहू चाहिए ..
समाजवाद के नाम पर हुए वर्ग संघर्ष में माना जाता है सबसे अधिक नर संहार और उत्पीडन हुआ ...जिसे आज भी बिहार , झारखण्ड ,मध्यप्रदेश , असम , उड़ीसा ,मणिपुर ,अरुणाचल झेले जा रहा है ...उन्हें मुख्य धारा में मिलने से रोका जा रहा है ...
..सदियों से साहचर्य में रह रहे भाइयों को अलग थलग कर देना चाहती है ...बार-बार सांस्कृतिक प्रतीकों को गैर बता अलगाव वाद की खेती लहलहाना चाहती है ..
तेंदुए का बार-बार आना कोई अच्छा संभव नहीं
घात लगाने की जगह वह बेलाग होता चला जाता है
कसी मुट्ठियों में चाकू थामे दुराग्रही मतावलम्बियों की तरह !
संताप और क्षोभ के किनारे और बँधते जाते हैं फिर ..... ...... यहाँ बिम्ब के सहारे इस्लामिक आतंकवाद के बार-बार आक्रमण को वामपंथियों का अपने उदेश्य में पूरक की तरह देखा गया है ..... जो उन्हें उम्मीद से करती है .. फिर भी वे अटल हैं ..
बन्द करो ढूँढना संभावनाएँ.. सम्मिलन की..
मत पीटो नगाड़े..
थूर दो बाँसुरियों के मुँह.. ... .......... वैश्विक राजनीति में एकता और समन्वय लाने के लिए जो राजनैतिक प्रयास किये जा रहे हैं ..पता है उससे कुछ होना जाना है नहीं ..... ना चीन को कोई फर्क नहीं पड़ता... आप कितना भी हिंदी-चीनी भाई-भाई कर लें .. पहले भी हुआ था ..पर सीमा पर सैनिक मरते रहे ..आप कितना भी ढोल पीट लो ....
मान लो.. कि रक्त सने होंठों से चूमा जाना विह्वल प्रेम का पर्याय है...... ............. सच तो यही है ..युद्ध तो ये करते रहेंगे ..अतिक्रमण और घुसपैठ चलता रहेगा ...क्योंकि
नदी को आश्वस्ति है
वो बहेगी.. गहरे-गहरे बहेगी..
जिसका पानी लाल है.........
कई जगह सफल होने के कारण आश्वस्त भी है वो बह रही है .... अपने लाल रंग को और गहरा कर लेगी .. हमें अपनी जड़ो से उखाड़ फेकेगी जब वो और गहरे बहेगी
भले ही वामपंथियों का जन्म यहाँ हुआ है .. भले ही उनके पिता ने उनका नाम राम से रखा है या घनश्याम से ...वे तो वहीँ का खाते हैं और बजाते हैं कहीं ...
इसे पढने के बाद नैराश्य और संताप की नदी में हम भी उतारने लगे ... पर हमें भी आश्वस्ति है की हमारी सांस्कृतिक चेतना इतनी गहरी है जिसके कारण हम फिर से उबर जायेंगे और ..लाल नदी ..जल्द ही सूख जायेगी ....
हार्दिक बधाई आदरणीय सौरभ सर ..
आदरणीय सुलभजी, आपको रचना प्रभावित कर पायी, यह रचना का सौभाग्य है.
हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय विजयभाईजी,
इस रचन्बा पर आपकी टिप्पणी मेरे लिए पुरस्कार है. आपको रचना बाँध पायी यह अधिक आश्वस्तिकारी है.
सादर आभार आदरणीय
आदरणीय शरदिन्दुजी, आप स्वयं ही एक अति संवेदनशील रचनाकार हैं. आपकी वैचारिक रचनाओं की मैं प्रतीक्षा करता हूँ. आपसे किसी वैचारिक रचना पर अनुमोदन पाना सनद पाने के बराबर है.
आपने रचना को इतना मान दिया, इस हेतु आभार.
मैं अपनी अन्यान्य व्यस्तताओं के कारण नेट पर बहुत समय नहीं दे पा रहा हूँ. अतः आभार प्रेषण में विलम्ब हुआ है. इसका हार्दिक खेद है.
सादर
भाई नीरजजी, आपने इस रचना को क्या ही खूबसूरत आयाम दिया है. आपकी संवेदना रचनाकर्म को एक अलग ही अर्थ देती है.
हार्दिक धन्यवाद भाईजी..
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