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आदरणीय प्रेम जी,
इस सधी हुई ग़ज़ल के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! --
"हमारी दिल परस्ती का वो ये ईनाम देता है ।
हमारे दिल के टुकडे कर हमेँ इल्जाम देता है ।"
बहुत उम्दा गजल कही आपने i बधाई हो i
आदरणीय
इस गजल में पहले दूसरे एवं तीसरे शेर में ‘के साथ’ रदीफ बनाकर गजल को कहा गया है। मेरी जानकारी के अनुसार पहला शेर मतला है दूसरा शेर हुसने मतला कहलाता है और तीसरी शेर भी हुसने मतला कहलायेगा इस लिये इसमें तकाबुले रदीफ का दोष नहीं है। अगर आपको इसके अतिरिक्त मालूम हो तो जरूर बतायें जिससे हमारा भी ज्ञान बढ़े।
आदरणीय नरेंद्र जी बहुत बहुत आभार |
आदरणीय विश्वकर्मा जी आप का बहुत आभार | तकाबुले रदीफ़ तो दोष मुझे भी पता है पर दूसरा वाला दोष मेरे संज्ञान मे नही है मै किसी की एक ग़ज़ल लिखता हूँ ज़रा बताइयेगा इसमें तकाबुले रदीफ़ कैसे नही है
कुछ दिन कटे हैं गम मे तो कुछ दिन ख़ुशी के साथ |
होता रहा मज़ाक मेरी ज़िन्दगी के साथ |
एक हादसा है ये भी मेरी ज़िन्दगी के साथ |
मै किसी के साथ मेरा दिल किसी के साथ |
कुदरत ने क्या मज़ाक किया आदमी के साथ |
जीना ख़ुशी के साथ न मरना ख़ुशी के साथ |
किस मुहं से कोई अजमते आदम का नाम ले ,
जब आदमी फरेब करे आदमी के साथ |
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी बहुत बहुत आभार व्यक्त करता हूँ
आदरणीय मिश्रा जी बहुत सुन्दर गजल आपने कही इसके लिये आप को बधाई परन्तु मेरे ज्ञान के अनुसार गजल में दो दोष हैं
दूसरे शेर में तकाबुले रदीफ का और तीसरे शेर में रदीफ देता बदल कर लेता कर दिया है जो कि मेरे ज्ञान के अनुसार गलत है हो सकता है मैं गलत भी होऊँ। अच्छे शेरनिकालने के लिये बधाई।
बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है भाई नीरज जी , आपको दिली बधाइयाँ |
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