उनका अभिनंदन है जो कुछ कर गुजरते हैं ।
भाग्य की प्राण-प्रतिष्ठा के हवन में भी
कर्म ही यजमान बनकर होम करते हैं ।
मेरे शब्दों को अभी स्वर की तमन्ना है,
फड़फड़ाते पंख को आकाश बनना है,
वेदना के गर्भ में संकल्प पलता है
हर अमा को चीर कर सूरज निकलता है
आश्वासन आस से परिहास मत करना
आँसुओं से अन्ततः अंगार झरते हैं ।
चेतना की बाँसुरी को स्नेह की सरगम,
भावना को दे नये उद्गम, नये संगम,
ओस बन अन्तःकरण के कुसुम को धो दे
बीज प्राणों में नये उत्साह के बो दे
दोस्त बन संवेदना संजीवनी जिससे
रूह तक पैठे हुये नासूर भरते हैं ।
शक्ति सत्ता में सहज सद्भावना भर दें,
रुँधे कण्ठों को जो बल दे, शब्द दे, स्वर दें,
वे सहज मन की गली में घर बना लेते
सृष्टि के इतिहास को धड़कन नई देते
पत्थरों पर नाम खुदवाने नहीं जाते
जो खरे मन की कसौटी पर उतरते हैं ।
- सुलभ अग्निहोत्री
मौलिक तथा अप्रकाशित
Comment
आदरणीय !
मुखड़ा त्रिपदी में क्यों ? इसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं हैं सिवाय इसके कि बस हो गया।
प्राण-प्रतिष्ठा रवानी को बाधित नहीं कर रहा है।
‘प्राण-प्रतिष्ठा में भी द्वित्व का वही नियम काम कर रहा है जो आग्रह में करता है।
कहने का तात्पर्य यह कि प्राण-प्रतिष्ठा का सही उच्चारण -- प्राणप्प्रतिष्ठा -- होगा।
.. और सही उच्चारण के साथ रवानी कतई बाधित नहीं हो रही है। उच्चारण में यदि द्वित्व नहीं करेंगे तो रवानी बाधित होगी - पर वह अशुद्ध उच्चारण है।
गीत निस्संदेह सुन्दर रचा है, लेकिन मुखड़ा त्रिपदी में क्यों आ० सुलभ अग्निहोत्री जी ? इसके इलावा मुखड़े (त्रिपदी) में "प्राण-प्रतिष्ठा" शब्द रवानगी को बाधित भी कर रहा है।
बहुत-बहुत आभार आदरणीया vandana जी !
बहुत-बहुत आभार आदरणीय Er. Ganesh Jee "Bagi" जी !
... किंतु आदरणीया ‘एमिन’ स्तर के सदस्यों से तो मैं रचना के भरपूर पोस्टमार्टम के अपेक्षा करता हूँ।
बहुत-बहुत आभार आदरणीया rajesh kumari जी !
... किंतु आदरणीया ‘एमिन’ स्तर के सदस्यों से तो मैं रचना के भरपूर पोस्टमार्टम के अपेक्षा करता हूँ।
बहुत-बहुत आभार जितेन्द्र 'गीत' जी !
बहुत-बहुत आभार सविता जी !
आश्वासन आस से परिहास मत करना
आँसुओं से अन्ततः अंगार झरते हैं ।
बहुत शानदार गीत आदरणीय बहुत२ बधाई आपको
सुन्दर गीत प्रस्तुत हुआ है सुलभ जी, बधाई प्रेषित करता हूँ।
बहुत सुन्दर वाह्ह्ह ,बहुत बहुत बधाई आपको इस शानदार प्रस्तुति के लिए आ० सुलभ जी.
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