**दीप कोई प्रीत का अंतस जले.
हो चुकी है रात आधी,
घोर तम मावस पले.
इस अमा में दीप कोई,
प्रीत का अंतस जले.
--
हर तरफ खुशियाँ बिछी हैं,
द्वार तोरण से सजे.
आतिशी होते धमाके,
वाद्य मंगल धुन बजे.
कौन देता ध्यान उनपर,
भूख से मरते भले.
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बाल दे इक दीप कोई,
रौशनी भी हो यहाँ.
झोपड़ी को राह तकते,
घिर चूका है कहकशाँ.
लूटते सारी ख़ुशी वो,
काट सकते जो गले.
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शोषणों का दौर है ये,
मान बिकता है यहाँ,
आदमी ही आदमी के,
दाम गिनता है यहाँ.
न्याय कब मिल पायेगा,
वो हाथ यूँ कब तक मले.
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इक तरफ तो है दिवाली,
रात काली इक तरफ.
इक तरफ है स्वर्ण पूजा,
श्रम उपासक इक तरफ.
बेबसी का दौर कैसा,
क्यों दलित पदतल दले.
--
प्रीत की बारिश कभी,
होगी नहीं इस द्वीप में.
बूँद स्वाती की कभी,
क्या आएगी इस सीप में.
मोतियों की आश में हैं,
कौन उन सबको छले.
**हरिवल्लभ शर्मा
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया rajesh kumari जी आपने रचना की सुन्दर समीक्षा कर मान दिया आपका हार्दिक आभार.कृपया स्नेह बनाये रखें.
आदरणीय narendrasinh chauhan जी बहुत आभार ,आपका अनुमोदन मिला..
एक तरफ़ दिवाली दूसरी तरफ अँधियारा ..श्याम सफ़ेद दोनों ही रंगों में रंगी प्रस्तुति बहुत शानदार ,हार्दिक बधाई आपको आ० हरिवल्लभ जी .
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