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विश्‍वदृष्टि दिवस पर रचना

बचें दृष्टि से दृष्टिदोष फैला हुआ है चहुँ दिश।

निकट या दूर दृष्टि सिंहावलोकन हो चहुँ दिश।

दृष्टि लगे या दृष्टि पड़े जब डिढ्या बने विषैली।

तड़ित सदृश झकझोरे मन जब दृष्टि बने पहेली।

गिद्धदृष्टि से आहत जन-जन वक्र दृष्टि से जनपथ।

जन प्रतिनिधि, सत्‍ताधीशों के कर्म अनीति से लथपथ।

रखें दृष्टिगत हो जन-जाग्रति, जन-निनाद, जन-क्रांति।

है विकल्‍प बस दृष्टि रखें ना फैलायें दिग्भ्रांति।

सर्वप्रथम संक्रामक, जन जीवन के हटें प्रदूषण।

हरित क्रांति, हर प्राणी रक्षित हों ना करें परीक्षण।

सर्वहिताय, जन सुखाय सर्वतोभद्र दृष्टि हो एक।

बिना दृष्टि बन जायेंगे धृतराष्‍ट्र अनेकानेक।

विश्‍वदृष्टि दिन है संकल्‍प करें लिख दें इक लेख।

पहुँचे दृ‍ष्टि क्षितिज तक खींचे सुख समृद्धि की रेख।

‘मौलिक एवं अप्रकाशित’  

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Comment

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Comment by somesh kumar on October 9, 2014 at 9:31pm

हाँ हमारी दृष्टि का विस्तार होना चाहिए 

जो नहीं देखा अभी तक वो देखना चाहिए 

 

अर्थपूर्ण सुंदर संदेशप्रद कविता 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 9, 2014 at 7:58pm

आदरणीय गोपाल कृष्ण जी इस रचना के लिये बहुत बहुत बधाई

Comment by Dr. Vijai Shanker on October 9, 2014 at 11:38am
बहुत सुन्दर . बधाई आदरणीय डॉo गोपाल कृष्ण जी .

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