कहाँ गए वो लोग
औरों के गम में रोने वाले
संग दालान में सोने वाले।
साँझ ढले मानस का पाठ
सुनने और सुनाने वाले ।
होती थी जब बेटी विदा
पड़ोस की चाची रोती थी
फूल खिले किसी के आँगन
मिलकर सोहर गाने वाले
पाँव में भले दरारें थी
पर निश्छल निर्दोष हंसी
शादी के महीनो पहले
ब्याह के गीत गाने वाले
पूजा हो या कार्य प्रयोजन
पूरा गाँव उमड़ता था
किसी के घर विपत्ति हो
सामूहिक रूप से लड़ता था
किसी के भी संबंधी को
अपना कुटुंब बताने वाले ।
गाँव की पंचायतों में
स्वयं परमेश्वर बसता था।
सहकारी परंपरा से
सारा कार्य निबटता था।
किसी के घर के चूने पर
मिलकर छप्पर छाने वाले ।
कहाँ गए वो लोग।
कहाँ गए वो लोग।
.... नीरज नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी आपकी टिप्पणी एवं आपके स्नेह हेतू आपका अनेकानेक धन्यवाद।
आपके समर्थन एवं हौसला आफजाई के लिए आपका हार्दिक आभार। आ सोमेश जी ॥
आदरणीय जवाहर जी विषय से सहमति हेतू आपका हार्दिक धन्यवाद ॥
आपका आभार आदरणीया सरिता जी ॥
रहिमन अब वे बिरछ कह जिनकी छांह गभीर
बागन बिच-बिच देखियत सेहुण ढाक करीर
शहर , चकाचौंध और बाज़ार ले गई सब यारियाँ
अब हर चीज़ की कीमत है हर काम में दुश्वारियां |
बदलते समाजिक-स्वरूप पर सुंदर-चिंतन
गाँव की पंचायतों में
स्वयं परमेश्वर बसता था।
सहकारी परंपरा से
सारा कार्य निबटता था।
किसी के घर के चूने पर
मिलकर छप्पर छाने वाले ।
अब तो मिलकर छप्पड़ उजाड़नेवाले ही मिलेंगे...
वाकई कहाँ गए वो लोग ??
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