लोग हैं सब पत्थरों के आजकल मैं भी
बार करते ख़न्जरों के आजकल मैं भी
लुट गयीं अब तो बहारें, सब शज़र सूखे
गीत लिखता बन्जरों के आजकल मैं भी
मुफलिसी देखी कभी फुटपाथ पर रोती
लोग देखे बे-घरों के आजकल मैं भी
दर्द को गाते हुये देखा फकीरों को
हो गये जो दर-दरों के आजकल मैं भी
आसमाँ छूने चला हूँ जिद़ पुरानी है
उड़ रहा हूँ बिन परों के आजकल मैं भी
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ. उमेश भाई , अब तो मतले मे ही काफिया दोष आ गया है , पत्थरों और सरफिरों को काफिया नही लिया जा सकता , समान हिस्सा रों हटाने के बाद स्वर मिलना भी ज़रूरी होता है , जो समान हिस्स- रों - हटाने के बाद ,पत्थरों में अ है और सिरफिरों मे इ है । आपको सभी काफिये अरों आने वाले शब्दों का या इरों उच्चारित होने वाले शब्दों का लेना चहिये । आपकी गज़ल के के हिसाब से मुझे अरों काफिया लेना सरल लगता है , जादा शे र आपके अरों काफिया के हैं । परों , दरों , घरों , पत्थरों , बंजरों , खंजरों ऐसे ही शब्द सही रहेंगे ।
भाईसाहब गिरिराज की कृपया एकबार और देख लें अब सही है क्या
शुक्रिया जितेन्द्र गीत साहब
शुक्रिया गिरिराज भण्डारी जी
आ. मुकेश भाई , बढिया ग़ज़ल हुई है , दिली बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय , दूसरे , तीसरे और चौथे शे र मे काफिया ग़लत ( इरों और उरों ) है , बाक़ी शे र को - अरों काफिया मे बान्धा है , देख लीजियेगा ।
बेहतरीन मतले के साथ, बहुत लाजवाब गजल आदरणीय उमेश जी. इं दो अश आर पर आपको विशेष बधाई
जिक़्र तेरा भी करूँ, पर कौनसे हक़ से
साथ है तू शातिरों के आजकल मैं भी
आसमाँ छूने चला हूँ जिद़ पुरानी है
उड़ रहा हूँ बिन परों के आजकल मैं भी
शुक्रिया सुशील सरना जी
जिक़्र तेरा भी करूँ, पर कौनसे हक़ से
साथ है तू शातिरों के आजकल मैं भी … वाह हर शेर की अपनी महक, अपना वज़ूद, अपने मायने .... दिल को भा गयी आपकी ये खूबसूरत अल्फ़ाज़ों में ढली खूबसूरत ग़ज़ल … हार्दिक बधाई आदरणीय
shukriya Baidynath saarthi ji
शुक्रिया भाईसाहब narendrasinh chauhan ji
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