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माॅर्निंग अखबार (लघुकथा)

"अनुपमा, इस पुलिस की नौकरी की तनख्वाह से तो घर चलाना बहुत मुश्किल हो रहा है। बच्चे भी बड़े हो रहे हैं। कैसे इनको हम उच्च शिक्षा और सही परवरिश दे पाएंगे?"
"आप ठीक कह रहे हो लेकिन इसका समाधान भी तो नहीं है।"
"समाधान तो है अगर तुम साथ दो तो.....।"
"पहले बताओ तो! क्या समाधान है?"
"तुम्हें बस एक बार मंत्री जी के पास माॅर्निंग का अखबार लेकर जाना होगा। फिर मेरा ट्रांसफर ऐसी जगह हो जाएगा जहाँ तनख्वाह से कई गुना ऊपर की कमाई होगी।"
अनुपमा की माॅर्निंग अखबार की सहमति ने परिवार की सारी आर्थिक परेशानियाँ दूर कर दी।

मौलिक और अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 29, 2014 at 8:28am

समाज मे व्याप्त बुराइयों मे से एक को साफ बयान कर रही है आपकी लघु कथा । अफसोस नाक है पर सच भी है कहीं । बधाइयाँ ।

Comment by विनोद खनगवाल on November 27, 2014 at 9:22pm
आदरणीय हरि प्रकाश जी धन्यवाद
Comment by Hari Prakash Dubey on November 27, 2014 at 5:52pm

रचना मन को सोचने पर मजबूर करती है की आज समाज किस दिशा मैं जा रहा है !आपको हार्दिक बधाई आदर्णीय विनोद जी !

Comment by विनोद खनगवाल on November 27, 2014 at 1:14pm
आदरणीय जवाहर लाल जी आभार
Comment by विनोद खनगवाल on November 27, 2014 at 12:58pm
आदरणीय सोमेश जी धन्यवाद
Comment by विनोद खनगवाल on November 27, 2014 at 12:56pm
आदरणीय योगराज जी, आपका हृदय से आभारी हूँ। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 27, 2014 at 12:30pm

ऐसा होता अक्सर देखा और सुना गया है, जिस लिए यह रचना हकीकत (तल्ख) के काफी नज़दीक हो गई है, अत: हार्दिक बधाई प्रेषित है। लेकिन मेरी नाचीज़ राय में लघुकथा की अंतिम पंक्ति और धारदार होनी चाहिए थी।

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on November 27, 2014 at 10:29am

गिरने को तरक्की कहें या अधोगति? कठोर कटाक्ष! 

Comment by somesh kumar on November 26, 2014 at 7:57pm

ऐसे चरित्र जो short-cut से सब कुछ हासिल करना चाहते हैं,आम हैं ,भौतिक लोलुपता के पीछे चरित्र और मूल्यों की भेट चढ़ाना आम है ,सुंदर लघुकथा भाई जी 

Comment by विनोद खनगवाल on November 26, 2014 at 5:13pm
आदरणीया अर्चना जी धन्यवाद

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"सुविचारित सुंदर आलेख "
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