"अनुपमा, इस पुलिस की नौकरी की तनख्वाह से तो घर चलाना बहुत मुश्किल हो रहा है। बच्चे भी बड़े हो रहे हैं। कैसे इनको हम उच्च शिक्षा और सही परवरिश दे पाएंगे?"
"आप ठीक कह रहे हो लेकिन इसका समाधान भी तो नहीं है।"
"समाधान तो है अगर तुम साथ दो तो.....।"
"पहले बताओ तो! क्या समाधान है?"
"तुम्हें बस एक बार मंत्री जी के पास माॅर्निंग का अखबार लेकर जाना होगा। फिर मेरा ट्रांसफर ऐसी जगह हो जाएगा जहाँ तनख्वाह से कई गुना ऊपर की कमाई होगी।"
अनुपमा की माॅर्निंग अखबार की सहमति ने परिवार की सारी आर्थिक परेशानियाँ दूर कर दी।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
समाज मे व्याप्त बुराइयों मे से एक को साफ बयान कर रही है आपकी लघु कथा । अफसोस नाक है पर सच भी है कहीं । बधाइयाँ ।
रचना मन को सोचने पर मजबूर करती है की आज समाज किस दिशा मैं जा रहा है !आपको हार्दिक बधाई आदर्णीय विनोद जी !
ऐसा होता अक्सर देखा और सुना गया है, जिस लिए यह रचना हकीकत (तल्ख) के काफी नज़दीक हो गई है, अत: हार्दिक बधाई प्रेषित है। लेकिन मेरी नाचीज़ राय में लघुकथा की अंतिम पंक्ति और धारदार होनी चाहिए थी।
गिरने को तरक्की कहें या अधोगति? कठोर कटाक्ष!
ऐसे चरित्र जो short-cut से सब कुछ हासिल करना चाहते हैं,आम हैं ,भौतिक लोलुपता के पीछे चरित्र और मूल्यों की भेट चढ़ाना आम है ,सुंदर लघुकथा भाई जी
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