पत्नी या प्रेमिका
चांद जैसी नहीं
सचमुच चाँद होती है
कभी लगती हेम जैसी
कभी देवि कालिका
कभी अंधकार
कभी मानस मरालिका
अंतस में अमिय-घट
स्वर्गंगा पनघट
राका एक छली नट
अभ्र बीच नाचे तू
चपला का शुभ्र पट
स्वयं में मगन इतना
शीतल तू आह कितना
सताये न अगन
चातक भी बैठा चुप
सहेजे निज लगन
सोलह कला चाँद में
अहो ! षोडश शृंगार में
अरे—रे--- यह क्या बखेड़ा
चौबीस दिन छोड़
पूरे साल मुंह टेढ़ा
नियति का खेला
अहो सांध्य बेला
पति कहो, प्रेमी कहो
निपट अकेला !
हाय, चाँद अलबेला !
(मौलिक/अप्रकाशित )
Comment
हरि प्रकाश जी
आपके प्रोत्साहन का आभार
राम शिरोमणि जी
आपका आभारी हूँ i
श्याम नारायन जी
आपका आभार i
पति कहो, प्रेमी कहो
निपट अकेला !
हाय, चाँद अलबेला !...बहुत ही शानदार ,हार्दिक बधाई डॉक्टर साहब ! सादर !
बहुत सुंदर और अनुपम रचना अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई |
सादर....................
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