अलि, आज छू गया प्रिय से दुकूल !
पुलक गया मन महक उठा तन
हंस रहा अंतर का वृन्दावन
भाव के मेघ उठे सागर की छोर
मन में बरस गए सावन के घन
अम्बर से तारों के फूल गए झूल I
बसी नस-नस में पीड़ा की पीर
सुप्त उर हो उठा सहसा अधीर
पाटल से छिल रहा सांवला तन
मन को बेध गया नैनो का तीर
फूलो सा फूल गया अंतस का फूल I
मुकुलित है नैन, अंतस बेचैन
कटते न दिन, छीजती न रैन
फैला है जग में मावसी तिमिर
देह में सुलग रहा अशरीर मैन
काम विशिख अंतस में देता है हूल I
छिड़ गये अंतस की वीणा के तार
तकती मै पन्थ हिय आँगन बुहार
था लाज का एक घूंघट सजल
चुपके से प्रिय आये नैनो के द्वार
देता है मरुत मृदु भावो को तूल I
सखि, यदि एक बार होती जो बात
महक उठती मेरी भी सपनीली रात
मै उनके सीने में निज सिर छिपा
चिर-मुक्त हो जाती बंधन से स्यात्
मिल जाते दोनों सरिता के कूल I
कितना प्रकृत है मन का मिलाप
मेल यह जीवन में बनता है शाप
विभु प्रेम से ही, मिलती है मुक्ति
पर, प्रेम जीव से करना है पाप ?
यही प्रेम है इस संसृति का मूल I
जग ने बनाया यहाँ एक व्यवहार
नहीं नेह पर जीवात्म अधिकार
संतुलन बना रहे मनुष्यता के बीच
पहले एक बंधन और एक संस्कार
ताकि पाशव-वृत्ति को हम जाँय भूल I
बनने न पाए कभी प्रेम व्यापार
संहिता सिखाती है अस्तु आचार
पशु और मानव में भेद भी यही
संस्कृति सभ्यता हमारे आधार
भारत में कभी नहीं संयम रहा शूल I
अलि, आज छू गया प्रिय से दुकूल !
(मौलिक/अप्रकाशित )
Comment
आ० योगराज जी
अनुज की पारखी दृष्टि का समर्थन पाकर संतुष्ट हूँ i सादर i
सोमेश कुमार जी
आपका बहुत बहुत आभार i
अति सुन्दर गीत रचा है आ० डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, हार्दिक बधाई प्रेषित है।
प्रेम उसके आचार-व्यवहार ,उससे होने वाली अनुभूतियाँ ,जुड़ी भावनाएं और फिर उसकी भारतीय मान्यता को बहुत ही बेहतरीन ढंग से संजोया आपने आदरणीय ,आपको और रचना को प्रणाम
आ 0 अनुज
आपका अनुगृहीत हूँ कि आपने शब्द-कोष के साथ पढी i यही सच्ची पाठकधर्मिता है i सादर i
आ 0 सौरभ जी
आपका आशीष मिला i कृतार्थ हुआ i यह मान्य और जायज है कि यह नवगीत नहीं अपितु गीत ही है i चार अन्तरो के बाद मन कुछ आध्यात्मिक हो गया वही विचलन हो सकता है i सादर i
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , बहुत बढ़िया गीत रचना की है आपने , शब्द कोश का उपयोग करना ज़रूर पड़ा , बहुत ही खूबसूरत गीत रचना के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
क्या गीत रचना हुई है, आदरणीय गोपाल नारायनजी ! वाह ! मुखड़ा से उत्तर छायावाद के काल की रचनाओं का स्मरण हो आया. पहले चार अंतरे समान भावधर्मी हैं. और यही इस गीत के प्राण स्वरूप हैं.
यह अवश्य है कि आगे अंतरों में बहुत कुछ समो लेने के लोभ के प्रति सचेत हुआ जाता.
एक और बात, कतिपय सुधीजनों ने इस प्रस्तुति को नवगीत की संज्ञा से सम्बोधित किया है. यह उचित नहीं है. चूँकि नवगीत एक विशिष्ट विधा के तौर पर उभरा है, अतः नवगीत के विन्यास और उसके विधान के प्रति सुधी पाठकों का सचेत रहना आवश्यक है. ऐसी रचनायें शुद्ध 'गीत' कहलाया करती हैं
सादर बधाइयाँ !!
विजय सर !
आपका स्नेह यूँ ही मिलता रहे i सादर i
आदरणीया राजेश कुमारी जी
आपकी प्रतिक्रिया से मैं सदैव अपने को उर्ज्वास्वित पाता हूँ i सादर i
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