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ग़ज़ल - चलो कर लें निकलने का बहाना अब ( गिरिराज भंडारी )

१२२२        १२२२       १२२२

अकेले पन को कर ले तू , ठिकाना  अब

क़सम ली है, तो उस चौखट न जाना अब

समय बदला तो वो बदले , नज़र बदली

चलो कर लें  निकलने का  बहाना अब

 

वही आंसू , वही आहें  , वही   ग़म है

कहीं  पे  ख़त्म हो जाये  फ़साना  अब

 

झिझक ये ही हरिक दिल में, यही डर है

कहेगा क्या जो  जानेगा  ज़माना  अब

 

सुनो तितली , सुने  पंछी  बहारें   भी

मेरे उजड़े  हुये घर में , न  आना अब

 

कबूतर  बच  के गुम्बद से  कहाँ जाएँ

कहाँ  ढूंढें,  कहाँ  कर लें  ठिकाना अब

     

वही ज्ज़्बा, वही  बातें , वही   दिल है

मगर चेह्रा  लगा मुझको  पुराना  अब

 

नक़ाब  उलटा अयाँ सच की  हुई शक़्लें

करोगे  क्या  बताओ तो  बहाना  अब

*******************

मौलिक अवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 24, 2014 at 1:33pm

बहुत शुक्रिया , आ. वीनस भाई , ऐसे ही आते रहा कीजिये सीखना रुक गया है ।

Comment by वीनस केसरी on December 24, 2014 at 1:25pm
मतला अब बहुत बेहतर है

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 24, 2014 at 6:52am

आदरणीय वीनस भाई , बहुत दिनो बाद आपको मंच पर देख के बे हद  खुशी हुई , आपको रोज़ देखना कब से नसीब होगा ? 

मतले की कमी बताने के लिये दिली शुक्रिया । मै उसे इस तरह सुधारना चाहता हूँ  - 

अकेले पन को कर ले तू  ठिकाना अब

क़सम ली है, तो उस चौखट न जाना अब ---- मिसरा सही हुआ क्या बताइयेगा ।

 

Comment by वीनस केसरी on December 24, 2014 at 4:06am

अच्छी ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकार करें

मतले के साथ नाइंसाफी हुयी है :)))
कोई रब्त नहीं दिखा ... पहला मिसरा संतोषजनक नहीं है

ये मेरा दिल, चलो इतना तो माना अब
क़सम ले ली, उसी चौखट में जाना अब

ये मेरा दिल, चलो इतना तो माना अब
क़सम ली है, तो उस चौखट न जाना अब

ये मेरा दिल, चलो इतना तो माना अब
क़सम ले ली, तो है उसको निभाना अब



आप बहुत कुछ कर सकते थे ...कुछ भी जिसमें रब्त होता


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 10, 2014 at 10:48am

आदरणीय सौरभ भाई , आपकी सराहना ने गज़ल कहना सार्थक कर दिया । आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 10, 2014 at 10:47am

आदरणीय भुवन भाई , आपका आभार ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 9, 2014 at 10:15pm

आदरणीय गिरिराजभाईजी, आपकी ग़ज़ल केलिए हार्दिक बधाई ..
निम्नलिखित दो शेर तो मोह गये हैं. बहुत खूब !
सुनो तितली , सुने  पंछी  बहारें   भी
मेरे उजड़े  हुये घर में , न  आना अब

कबूतर  बच  के गुम्बद से  कहाँ जाएँ
कहाँ  ढूंढें,  कहाँ  कर लें  ठिकाना अब

क्या बात, क्या बात !
सादर

Comment by भुवन निस्तेज on December 9, 2014 at 3:48pm

बड़े ही अच्छे अशआर हुए हैं आदरणीय... ह्रदयतल से बधाई स्वीकार करें,...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 9, 2014 at 9:34am

आदरणीय मिथिलेश भाई , ओ बी ओ मे कभी भी उचित सलाह या ग़लती बताने मे कोई संकोच न करें , हम सब एक दूसरे से सीखते आये हैं ।

उस शे र मे ऐसी  कोई बड़ी बात नहीं है , और न ही समझने में कोई मुश्किल बात है ! आपने जैसे शेर कहा है , वो भी सही है , बस मुश्किल के बाद से और आना चाहिये ऐसा मुझे लगता है , लेकिन मिसरा बेबहर हो जायेगा । इसी लिये मै -- पड़ी मुश्किल  लिया है । दोनो शे र एक ही बात कह रहे हैं लगभग । सादर ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 9, 2014 at 9:25am

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , आपकी उपस्थिति ही मेरा उत्साह वर्धन करती है , सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।

कृपया ध्यान दे...

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