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वो आज ही बेवा हुई !
बुझ-सी गई जब रौशनी, जमने लगी जब तीरगी,
बदली यहाँ फिर ज़िन्दगी, वह आज ही बेवा हुई !
क्यूं तीन बच्चे छोड़कर, मुंह इस जहां से मोड़कर,
वो हो गया ज़न्नतनशीं, वो आज ही बेवा हुई !
है लाश नुक्कड़ पे पड़ी, मजमा लगा चारो तरफ,
उस पर सभी नज़रें गड़ी, वह आज ही बेवा हुई !
वो रो रही फिर रो रही, बस लाश को वो ताकती,
उसने कहा कुछ भी नहीं, वो आज ही बेवा हुई !
फिर यकबयक वो चुप हुई, अब मैं सुहागन तो नहीं,
जैसे सिफ़र सी तिश्नगी, फिर आँख में उसके चढ़ी,
उस लाश के पहने हुए, उस कोट पर उसकी नज़र,
था कोट वैसे तो फटा, खुद ज़िन्दगी से था कटा,
उसको तसल्ली हो गई, वो आज ही बेवा हुई !
फिर फिर तसल्ली सी हुई ये देखकर,
“इन सर्दियों में कोट अपना छोड़कर,
क्या खूब तुम हमदम हुए ज़न्नतनशीं,
शौहर मेरे, औलाद की क्या फ़िक्र की”
उसने उतारा कोट लेकर चल पड़ी,
बेवा हुई,
वो आज ही बेवा हुई !
लेकिन उसे इक कोट की दौलत मिली।
ये देख के सब लोग यूं हैरान थे, होने लगी चारो तरफ सरगोशियाँ।
मेरे ख़ुदा इसने भला ये क्या किया, इक लाश का भी कोट क्योंकर ले लिया।
ये लालची कितनी भला औरत हुई,
अब देख लो कैसी भला जुर्रत हुई।
ज़न्नतनशीं का क्यूं भला ये हाल है,
लाश का क्यूं इस कदर पामाल है।
ये पैरहन माटी मिले का ले गई,
बस याखुदा, बस याखुदा की गूँज थी।
बेवा हुई, वो आज ही बेवा हुई !
जाहिर कि वो सब लोग थे, बस लोग थे मुफ़्लिस नहीं,
मुफ़्लिस नहीं क्या जानते, होती भला क्या सर्दियां, होती भला क्या कंपकपी,
जमने लगे जब हड्डियाँ, जमने लगे जब ये लहू, रूकने लगे जब धड़कने,
फिर सांस भी थमने लगे, फिर हारती है ज़िन्दगी, वो आज ही बेवा हुई !
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(मौलिक व अप्रकाशित) - मिथिलेश वामनकर
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(नज़्म, बह्र-ए-रजज़) [ 2 2 1 2 ]
Comment
आदरणीय मिथिलेश भाई , बहुत सुन्दर मार्मिक नज़्म कही ! दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ।
आदरणीय मिथिलेश वामनकरजी, आपकी इस नज़्म पर हृदय से बधाइयाँ प्रेषित कर रहा हूँ. जिस रवानी में कहन को साधने का प्रयास हुआ है वह मुग्धकारी है.
जहाँ तक नज़्म या ग़ज़ल या कत्अ आदि का सवाल है, ये सभी आधारभूत बहरों पर ही निर्भर करती हैं. बस विधाओं के तौर पर उनमें अंतर होता है. अब देखिये न, इस मंच पर इस बार के तरही मुशायरे का मिसरा जिस बहर पर आधारित है, २२१ १२२२ २२१ १२२२ इस पर फिल्म ’लाट साहब’ का एक बहुत ही मकबूल गीत है - 'ऐ चाँद ज़रा छुपजा, ऐ वक्त ज़रा थम जा..
कहने का मतलब है कि विधान के अनुसार ही कोई रचना ग़ज़ल या नज़्म या कत्अ होती है.
पुनः आपके प्रयासों और इस मार्मिक रचना के लिए हार्दिक बधाइयाँ व शुभकामनाएँ
जब बह्र के आधार पर गीत/नवगीत कहे जा सकते हैं तो नज़्म कहने में क्या हर्ज़ है ? बल्कि इससे तो नज़्म की रवानगी में गज़ब का इज़ाफ़ा होता है। नज़म बेहद खूबसूरत हुई है जिसके लिए दिल से बधाई प्रस्तुत है भाई मिथिलेश वामनकर जी।
खुबसुरत
कुछ अलग तरह से लिखने का प्रयास किया है. क्या नज़्म ऐसे ही लिखते है ? ये नज़्म है या नहीं ? गुनीजनो से मार्गदर्शन चाहता हूँ इसलिए यह पोस्ट की है .
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